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समय
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पंच अकथ परदोष, थिरी करण छट्ठम सहज । सप्तम वत्सल पोष, अष्टम अंग प्रभावना ॥ ५८ ॥
अर्थ — निःसंशय अंग ॥१॥ निःकांक्षित अंग ॥२॥ निर्विचिकित्सित अंग ॥३॥ अमूढदृष्टि अंग || उपगूहन अंग ॥ ५ ॥ स्थितीकरण अंग ॥६॥ वात्सल्य अंग ॥७॥ प्रभावना अंग ॥ ८ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ ॥ अव सम्यक्तके अष्ट अंगका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
धर्म न संशै शुभकर्म फलकी न इच्छा, अशुभकों देखि न गिलानि आणे चित्तमें ॥ साचि दृष्टि राखे काहू प्राणीको न दोष भाखे, चंचलता भानि थीति ठाणे बोध वित्तमें ॥ प्यार निज रूपसों उच्छाहकी तरंग ऊठे, एइ आठो अंग जब जागे समकित ॥ ताहि समकितकों धरे सो समकीत वंत, वेहि मोक्ष पावे वो न आवे फीर इतमें ॥ ५९ ॥ अर्थ — धर्ममें संदेह न करना सो निःशंकित अंग है ॥ १ ॥ शुभक्रिया करिके तिसके फलकी | इच्छा नहि करना सो निःकांक्षित अंग है ॥ २ ॥ अशुभवस्तु देखि अपने चित्तमें ग्लानि नहि करना | सो निर्विचिकित्सित अंग है ॥ ३ ॥ मूढपणा त्यागि सत्य तत्वमें प्रीति रखना सो अमूढदृष्टी अंग है ॥ ४ ॥ धार्मिकके दोष प्रसिद्ध न करना सो उपगूहन अंग है ॥ ५ ॥ चंचलता त्यागि ज्ञानमें स्थिरता रखना सो स्थितिकरण अंग है ॥ ६ ॥ धार्मिक ऊपर तथा आत्मस्वरूपमें प्रेम रखना सो वात्सल्य अंग है ॥ ७ ॥ ज्ञानकी प्रसिद्धीमें तथा आत्मस्वरूपके साधनमें उत्साहका तरंग उठना सो प्रभावना | अंग है ||८|| ये आठ अंग जब सम्यक्तमें जाग्रत होय है तब ताको सम्यक्ती कहिये है । तिस सम्यक्कूं | धरनहारो सम्यक्तवंतही मोक्षकूं जावे है, सो फेर जगमें नहि आवे है ॥ ५९ ॥
सार
॥ ६१॥