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सार.
समय-
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- ॥ अव मूढजीव कर्मवंधसे कैसे निकसे नही सो लोटण कबूतरका दृष्टांत देके कहे है ॥ ३१ सा ॥
लीये दृढ पेच फिरे लोटण कबूतरसों, उलटो अनादिको न कहूं सुलटत है ॥ जाको फल दुःख ताहि सातासों कहत सुख, सहत लपेटि असि धारासी चटत है ।। ऐसे मूढजन निज संपत्ति न लखे कोहि, योहि मेरी २ निशिवासर रटत है ॥
याहि ममतासों परमारथ विनसि जाइ, कांजिको फरस पाइ दूध ज्यों फटत है ।। २७ ॥ है ___ अर्थ जैसे लोटण कबूतरके पंखळू दृढ पेंच देके छोड देवेतो उलटही फिरे है, तैसे संसारीप्राणी ॐ अनादिकालका कर्मबंधके पेंचते उलटही फिरे है पण कोईरीते सुलट मार्ग धरतो नही । अर जैसे मध
लपेटी तरवारके धारकू चाटेतो तिससे मिठांश थोडा अर दुःख बहुत है । तैसे जिसका फल दुःख है। हैं ऐसे विषय भोगसे किंचित् साता उपजे तिस• सुख माने है, ऐसे मूढ प्राणी शरीरादिक पर वस्तुकू ६ * रात्रंदिन मेरी मेरी कर रह्यो है, पण अपने ज्ञानादिक संपत्तीकू देखतो नही । इसही ममतासे परमार्थ १ त (आत्म कल्याण) बिगडी जाय है, जैसे कांजी (लूणके पाणी) का स्पर्श होते दूध फटिजाय है ॥२७॥
॥ अव नाकका अर काकका दृष्टांत देके मूढके अहंबुद्धीका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥- हूँ रूपकी न झांक हिये करमको डांक पीये, ज्ञान दवि रह्यो मिरगांक जैसे घनमें ॥ लोचनकि ढांकसों न मानें सदगुरु हांक, डोले मृढ रंकसों निशंक तिहं पनमें ॥ १ ॥६९॥ टांक एक मांसकी डलीसि तामें तीन फांक, तीन कोसो अंक लिखि राख्यो काहूं तनमें ॥ तासों कहे नांक ताके राखवेको करे कांक, वांकसों खडग वांधिवांधि धरे मनमें ॥२८॥
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