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अर्थ — मूढके हृदयमें ज्ञानरूप दृष्टी नही ताते कर्मका उदय होय तैसे बन जात है, तिस कारणते | आत्मस्वरूप जे शुद्धज्ञान है सो दबि रहे है जैसे बादलमें चंद्र दबि जाय है तैसे । अर ज्ञानरूप दृष्टि दबने से अज्ञानी होय सद्गुरुकी हाक ( आज्ञा ) नहि माने है, ताते बाल तरुण अर वृद्ध इन तीनौं । | अवस्था में बोधरहित दरिद्री होय निशंक डोले है । अर अपना नाक ( अहंकार ) राखनेके कारण | मनमें बांकरूप खड्ड बांध बांधि लरे है । नाक है सो शरीरका एक मांसका भाग है तिसमें तीन फांक है, तिस नाकका आकार तीनके ( ३ ) अंक समान है ऐसे कवि नाककूं अलंकार देवे है ॥ २८ ॥ || अब कुत्तेका दृष्टांत देके मूढका विषयमें मग्नपणा दिखावे है ॥ सवैया ३१ सा ॥
जैसे को कूकर क्षुधित सूके हाड चावे, हाडनकि कोर चहुवोर चूभे मुखमें || गाल तालु रसनासों मूखनिको मांस फांटे, चाटे निज रुधिर मगन स्वाद सुखमें ॥ तैसे मूढ विषयी पुरुष रति रीत ठाणे, तामें चित्त साने हित माने खेद दुःखमें || देखे परतक्ष वल हानि मल मूत खानि, गहे न गिलानि पगि रहे राग रुखमें ॥ २९ ॥
अर्थ - जैसे कोई मुकित कुत्ता सूके हाड चावे, तिस हाडकी कोर मुखमें चहुँवोर टोचे है । ताते गाल तालू अर जीभ फटिके मुखमेते रक्त निकसे है, सो अपने रक्तकूं आप चाटि स्वाद सुखमें मग्न होय है । तैसेही मूढमनुष्य कामभोगकी क्रीडा करे है, तब तिसमें मनसा राखे है अर तिसते खेद तथा दुःख उपजे तोहूं तिसकूं अपना हित माने है । स्त्रीभोगमें शक्तिकी हानी अर मल मूत्रकी खानि प्रत्यक्ष दीखे है, तथापि तिसकी ग्लानि नहि करे है उलट तिसमें रात्रदिन प्रेमही राखे है ॥ २९ ॥