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समय-
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कर्मको उपाधिरूप दुःखमय दावाग्नि है, अर.इसहीमें आत्मध्यानरूप सुखकी मेघ वृष्टि है । इस है देहपिंडमें कर्मका कर्ता पुरुष (आत्मा) है अर' कर्ताकी क्रिया है अर इसिमें ज्ञानरूप संपदा है, इसमें है कर्मकां भोग है अर वियोग है अर इसिमें शुभ तथा अशुभ गुण उपजे है । ऐसे इस देहपिंडमें गर्मित
समस्त विलास गुप्तरूप है, पण जिसके हृदयमें सुदृष्टि ( ज्ञान ) का प्रकाश है तिसकूँ सब विलास । प्रत्यक्षपणे दीखे है ॥ ४५ ॥ ..
॥ अव आत्माके विलास जाननेका उपदेश गुरु करे है ॥ सवैया २३ सा ॥
रे रुचिवंत पचारि. कहे गुरु, तूं अपनो पद बूझत नांही ।। खोज हिये निज चेतन लक्षण, है निजमें निज गूझत नाही ॥ शुद्ध खच्छंद सदा अति उज्जल, मायाके फंद अरुझत नाही॥
तेरो स्वरूप न दुंदकि दोहिमें, तोहिमें है तोहि सूझत नाही ॥ ४६॥ अर्थ-शिष्यकू बुलाइके गुरु कहे, रे रुचिवंत ,भव्य ? तूं आपना स्वरूप वोलखतो नही । तूं ६ S आपना चेतन लक्षण हृदयमें धुंढ, तेरा लक्षण तेरे मांहि है, पण दृष्टिगोचर नही । तेरा स्वरूप सिद्ध है ६ समान है निज आधिन है अर कर्मरहित अति उज्जल है, पण मायाके फंदमें पड्या है तातें छूटि शकतो नही । तेरा स्वरूप.क्लेश वा भ्रमजालके दुबिधामें नहीं है, तेरे ही है पण तोकू सूझे नहि है ॥ ४६॥
॥ अव आत्मस्वरूपकी ऊलख ज्ञानसे होय है सो कहे है ॥ सवैया,२३ सा ॥केइ उदास रहे प्रभु कारण, केइ कहीं उठि जांहि कहींके ॥ केइ प्रणाम करे घडि मूरति, केइ पहार चढे चढि छींके ॥
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