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एतेपरि मूरख न खोजे परमारथको, खारथके हेतु भ्रम भारत ठटत है ॥
लग्योफिरे लोकनिसों पग्योपरे जोगनीसों, विषैरस भोगनिसों नेक न हटत है ॥ २५॥ | अर्थ जैसे अंजुलीमेंका पाणी घटे है, तैसे दिन दिन प्रति सूर्यका उदय अस्त होते. मनुष्यका
आयुष्य घटे है । अर जैसे करोतके खैचनेते लकडी कटे है, तैसे छिन छिनमें शरीर क्षीण होय है । ऐसे आयुष्य अर देह छिन छिनमें क्षीण होतेहूं, मूर्खजन परमार्थकू नहि धूंडे है, अपने संसारस्वार्थके कारण भ्रमका बोझा उठावे है । अर कामक्रोधादिकके साथे लगि फिरे है तथा शरीर संयोगमें मिलि रहे हैं, ताते विषय सुखके भोगते किंचितहूं नहि हटे है ॥ २५ ॥
- ॥ अव मृगजलका अर अंधका दृष्टांत देंके संसारीमूढका भ्रम दिखावे है ॥ ३१ सा ॥| जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति मांहि, तृषावंत मृषाजल कारण अटत है ॥ । तैसे भववासी मायाहीसों हित मानिमानि, ठानि २ भ्रम भूमि नाटक नटत है ॥
आगेकों दुकत धाइ पाछे बछरा चवाई, जैसे द्रग हीन नर जेवरी वटत है ॥ , तैसे मूढ चेतन सुकृत करतूति करे, रोवत हसत फल खोवत खटत है ॥ २६ ॥ __ अर्थ-जैसे जेष्ट महिनेमें सूर्यका बहुत ताप पडे है, तब मत्त मृग तृषातुर होय मृषाजलकुं जल जानि पीवनेकेअर्थी दौडे है पण तहां जल नहीं है।तैसे संसारी जीवहूं माया जालमें हित मानि मानि, 5| भ्रमरूप भूमिकामें नट्के समान नाचे है । अथवा. जैसे कोऊ अंधमनुष्य आगे जेवरी ( डोरी') वटत | जाय है, अर पीछे गऊका बछडा जेवरीकू चावी नाखे है सो अंध जाने नही ताते तिसकी मेहनत व्यर्थ ||जाय है । तैसे मूढ जीव पुण्योपार्जनकी क्रिया करे है, परंतु पूर्वकालके अशुभकर्मका उदय आवे तब रोवे है |
अर शुभकर्मका उदय आवे तब हासे है ताते इस राग द्वेषसें सुकृत क्रियाका फल नाश होवे है ॥२६॥