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समय
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॥ अव चोरभय निवारणकू मंत्र (उपाय ) कहे है ॥ ६॥ छप छंद ॥परम रूप परतच्छ, जासु लच्छन चित मंडित । पर परवेश तहां नांहि, महिमाहि अगम अखंडित । सो मम रूप अनूप, अकृत अनमित अटूट धन । तांहि 'चोरं किम गहे, ठोर नहि लहे और जन । चितवंत एम धरि ध्यान जव, तव 2 अगुप्त भय उपशमित।ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ५४॥ ___ अर्थ-आत्मा परमरूप प्रत्यक्ष है, अर ज्ञान लक्षणते भूपित है । तिस आत्मस्वरूपमें परका
प्रवेश नहि होय है, तिस आत्मस्वरूपकी महिमा इंद्रियते अगम्य है अर अखंडित है । तैसेही मेरा ६ अनुपम्य आत्मरूप धन है, सो किसीका कीया नही है अटूट अर अविनाशी है। ते धन चोर कैसे हूँ हरण करेगा ? अन्य जनके धसनेकुं तहां ठोरही नहीं है । जब ऐसे ध्यान देके आत्म स्वरूपका विचार है करे है, तब अगुप्त (चोरका ) भय नहि उपजे है । इस प्रकार ज्ञानी है सो चोरभयकी चिंता नहि * करे है, निशंक रहे अर कलंक रहित अपने ज्ञानरूप आत्माका सदा अवलोकन करे ॥ ५४ ॥
॥ अव अकस्मात्के भय निवारणकू मंत्र ( उपाय ) कहे है ॥ ७॥ छप छंद ॥शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सहज सुसमृद्ध सिद्ध सम । अलख अनादि अनंत, अतुल । अविचल स्वरूप मम । चिदविलास परकाश, वीत विकलप सुख थानक । जहां दुविधा नहि कोइ, होइ तहां कछु न अचानक । जव यह विचार उपजंत तब, अकस्मात भय नहि उदित। ज्ञानी निशंक निकलंक निज,ज्ञानरूपनिरखंत नित॥५५॥
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