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समय- ॥५९॥
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नहि उपजे है अर सुख होय है। ज्ञानी है सो परलोककी चिंता नहि करे निशंक रहे, अर कलंक रहित हूँ अपने ज्ञानरूप आत्माकू सदा अवलोकन करे ॥ ५० ॥
॥ अव मरणके भय निवारणकू मंत्र ( उपाय ) कहे है ॥ ३ ॥ छपै छंद ॥फरस जीभ नाशिका, नयन अरु श्रवण अक्ष इति । मन वच तन बल तीन, खास ।
उखास आयु थिति । ये दश प्राण विनाश, ताहि जग मरण कहीजे । ज्ञान प्राणी __ संयुक्त, जीव तिहुं काल न छीजे । यह चित करत नहि मरण भय, नय प्रमाण
जिनवर कथित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ५१॥ ६ अर्थ–१ स्पर्श १ जीभ १ नाक १ नेत्र १ कान ये पांच इंद्रियप्राण है । १ मन १ वचन ११ दू देह ये तीन बलप्राण है, १ श्वासोच्छास प्राण १ अर आयुष्य प्राण । ऐसे दश प्राण है, इनिके 5 हैं विनाशकू जगतमें मरण कहते है । अर जीव है सो भाव (ज्ञान) प्राण संयुक्त है, तिस भावप्राणका
तीन कालमें नाश नहीं होय है । जिनेंद्रभगवानने देह अपेक्षासे मरण कह्या है पण जीवकू मरण नही,
इस प्रकार चितवन करनेसे मरणका भय नहि उपजे है । ज्ञानी है सो मरणकी चिंता नहि करे निशंक ६ रहे, अर कलंक रहित अपने ज्ञानरूप आत्माकू सदा अवलोकन करे ॥ ५१ ॥ ॥ अव वेदनाके भय निवारणकू मंत्र (उपाय ) कहे है ॥ ४ ॥ छपै छंद ॥
॥५९॥ वेदनहारो जीव, जांहि वेदंत सोउ जिय, । यह वेदना अभंग, सो तो मम अंग नांहि विय । करम वेदना द्विविध, एक सुखमय दुतीय दुख । दोउ मोह विकार,
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