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तहां प्रलय, जासु संयोग वियोग तसु । परिग्रह प्रपंच परगट परखि, इहभव भय उपजे न चित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ४९ ॥
अर्थ नखशिखा पर्यंत समस्त देहमें, अभंग आत्मा है सो ज्ञानते देखे । अर ज्ञान है सो आत्माका अंग है, अर आत्माके संग जे शरीरादिक है सो पर पदार्थ है ऐसा निश्चय करे । संसारका । वैभव परिवार अर परिग्रहका भार है सो, क्षणभंगुर है। जिसकी उत्पत्ती तिसका नाश है, अर जिसका 5|संयोग तिसका वियोग होय है। ऐसे परिग्रहका प्रपञ्च (कपट ) है तिस कपटळू परखिये तो, चित्तमें इसभवका भय नहि उपजे है । इस प्रकार ज्ञानी है सो विचार करके परिग्रहके वियोगकी चिंता नहि करे निशंक रहे, अर कलंक रहित अपने ज्ञानरूप आत्माकू सदा अवलोकन करे ॥ १९ ॥
॥ अव परभवके भय निवारणकू मंत्र ( उपाय ) कहे है ॥ २॥ छपै छंद ।ज्ञानचक्र मम लोक, जासु अवलोक मोक्ष सुख । इतर. लोक मम नांहि नाहि, जिसमांहि दोष दुख । पुन्य सुगति दातार, पाप दुर्गति दुख दायक । दोउ खंडित खानि, मैं अखंडित शिव नायक । इहविधि विचार परलोक भय,
नहि व्यापत वरते सुखित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥५०॥ | अर्थ-ज्ञानचक्र विस्तार है सो मेरा लोक है, जिसमें मोक्षसुखका अवलोकन होय है । इतर स्वर्ग-14 लोक नरक लोक अर मनुष्य लोक यह लोक मेरा नही है, इसीमें अनेक दोष तथा दुःखके स्थान है । पुन्य सुगतीका देनेवाला है, अर पाप दुर्गतीका देनेवाला है। ये पाप अर पुन्य दोगेंहू विनाशीक है, पण मेरा आत्मा अखंडित अर मोक्षका नायक है । इसि प्रकार विचार करिये तो, परलोकका भय
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