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॥ अब अष्टांगसम्यक्तीके चैतन्यका निर्जरारूप नाटक बतावे है । सवैया ३१ सा ॥पूर्व बंध नासे सो तो संगीत कला प्रकासे, नव बंध रोधि ताल तोरत उछरिके ॥ निशंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरि, समताअलाप चारि करे स्वर भरिके॥ निरजरा नाद गाजे ध्यान मिरदंग बाजे, छक्यो महानंदमें समाधि रीझि करिके॥ सत्ता रंगभूमिमें मुकत भयो तिहूं काल, नाचे शुद्धदृष्टि नट ज्ञान खांग धरिके ॥ ६० ॥
अर्थ सम्यक्ती पूर्वीके कृतकर्मका नाश करे है सो- संगीत कलाका प्रकाश है, अर नवीन कर्म• रोके है सो- उछलि उछलिकरि ताल तोरे है । सम्यक्ती निःशंकितादि अष्ट अंग पाले है सोसंग साथीदार जोडी है, अर समता धारे है सो-स्वर धरिके आलापसे गाना है । सम्यक्ती कर्मकी निर्जरा करे है सो-वाद्य वाजिंत्रका नाद हो रहा है अर आत्मानुभवरूप ध्यान धरे है सो-मृदंग बाजे है, अर रत्नत्रयरूप समाधीमें तल्लीन होय है सो-गायनमें तन्मय होना है । आत्मसत्ता है सो-15 रंगभूमी है ऐसा सम्यग्दृष्टीनट ज्ञानरूप स्वांग धरि, मुक्त होनेके वास्ते तिहूं काल नाचे है ॥ ६ ॥
कही निर्जराकी कथा, शिवपथ साधन हार । अब कछु बंध प्रबंधको, कहूं अल्प विचार ॥६॥ a अर्थ-ऐसे मोक्षमार्ग साधनहारा निर्जराका स्वरूप कह्या । अब बंधद्वारका अल्प स्वरूप कहूंहूं ॥
॥ इति श्रीसमयसार नाटकको सप्तम निर्जराद्वार बालबोध सहित समाप्त भया ॥ ७ ॥