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समय
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शक्ति अर गति सिथल होय है । अर जब मिथ्यात्व भावका उदय आवे है तब नाना प्रकार कर्मबंध करे है, जैसे सर्पके उपरका मंत्र निकालनेसे शक्ति अर गति फेर प्राप्त होय है तैसे जानना ॥ १२ ॥ ॥ अव ज्ञानके शुद्धपणाकी प्रशंसा करे है ॥ दोहा ॥
यह निचोर या ग्रंथको, यहे परम रस पोख । तजे शुद्धनय वंध है, गहे शुद्धनय मोख ||१३|| अर्थ — इस समयसार नाटक ग्रंथका येही रहस्य ( भावार्थ ) है अर येही उत्कृष्ट रसका पुष्ट करनेवाला है की । जो शुद्ध नयकी रीत छोडे तो बंध है अर शुद्ध नयकी रीत ग्रहण करे तो मोक्ष है ॥ १३ ॥
॥ अव जीवके बाह्य विलास अर अंतर विलास बतावे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ करमके चक्र में फिरत जगवासी जीव, व्है रह्यो वहिरमुख व्यापत विषमता ॥ अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुद्गलसों प्रीति टूठी छूटी माया ममता ॥ शुद्ध निवास कीनो अनुभौ अभ्यास लीनो, अमभाव छांडि दीनो भीनोचित्त समता ॥ अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलंवि अवलोके राम रमता ॥ १४ ॥ अर्थ — त्रैलोक्यमें कर्मरूप चक्र ( शैन्य ) फिरे हैं तिसमें जगवासी जीव पण फिर रह्यो है, ता बहिर्मुख (बाह्य देह विषय भोगके सुख दुखका ग्राहक ) होय अंतर दृष्टीसे आत्माका स्वरूप न जाण्यो अर कहां इष्ट संयोग तथा कहां अनिष्ट संयोग इनसे जीवमें विषमता ( अशुद्धता ) व्याप्त हुई है। अर जब अंतरंग में सुमति आय आत्मखरूपके निर्मल प्रभुताकूं प्राप्त होय है, तब देहकी प्रीति तुटे है तथा राग द्वेप छूटे है । जैसा शुद्ध नयसे आत्म स्वरूप कह्या तैसा आत्मस्वरूपमें उपयोग
सार
अ०५
11 8311