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समय
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॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको सप्तम निर्जरा द्वार प्रारंभ ॥ ७ ॥
वरणी
॥ अत्र ज्ञानभाव को नमस्कार निर्जराका स्वरूप कहे है ॥ दोहा ॥ चौपई ॥संवरकीदशा, यथा युक्ति परमाण । मुक्ति वितरणी निर्जरा, सुनो भविक धरि कान ॥ जो संवर पद पाइ अनंदे । सो पूरव कृत कर्म निकंदे ॥
जो अफंद व्है बहुरि न दे । सो निर्जरा वनारसि वंदे ॥ १ ॥
अर्थ — जो ज्ञान संवररूप अवस्था धारण कर आनंद करे है, अर पूर्वे अज्ञान अवस्थामें बांधे कर्मकूं जड सहित उखाडे है । तथा जो रागद्वेषादिक भावकर्मके फंदकूं छोडि फेर तिस फंदमें नहि फसे है तिसका नाम निर्जरा है, तिस ज्ञानरूप निर्जरा भावकूं बनारसीदास वंदना करे है ॥ १ ॥ ॥ अव निर्जराका कारण सम्यकूज्ञान है तिस ज्ञानकी महिमा कहे है ॥ दोहा ॥ सोरठा ॥महिमा सम्यक्ज्ञानकी, अरु विराग वलजोय ॥ क्रिया करत फल भुंजते, कर्मवँध नहि होय ॥ २॥ पूर्व उदै संबंध, विषय भोगवे समकिती ॥ करे न नूतन वंध, महिमा ज्ञान विरागकी ॥ ३ ॥
अर्थ- सम्यक् ज्ञानते जे कर्म तूटे है तिस कर्मका फेर बंध नहि होय है यह सम्यक्ज्ञानकी महिमा है, अर सम्यक्ज्ञानके साथ साथही वैराग्यका बल उत्पन्न होय है । तिस कारणते सम्यक्ज्ञानी शुभ र अशुभ क्रिया करे तोहूं तथा पूर्वकृत कर्मका दीया शुभ और अशुभ फल ( विषय ) भोगवे है तोहूं, ज्ञानीकूं कर्मका नवा बंध नहि होय है यह सम्यक्ज्ञान के वैराग्यकी महिमा है ॥ २ ॥ ३ ॥
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सार
अ०७
118011