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समय
- व्यवहार साचा रखे है। संतोष समाधानीसे रहे अर निरंजन ( सर्वज्ञ वीतराग देव ) की भक्ति करे,
में अन्य जीवोंको भला उपदेशहूं देवे है तथा अदत्तका धन नहि लेवे है। समस्त परिग्रहवं छोडि नंग ॥१९॥ 5 अन्य
P ( दिगंवर ) होय फिरे है, आत्मानुभव विना देहको कष्ट सहे है । ऐसी ऐसी क्रिया करे है परंतु, में र अनात्मसत्ता ( राग द्वेप अर मोह) तथा आत्मसत्ता (शुद्धज्ञान चैतन्य ) इन दोनुक्त भिन्न भिन्न 5 नहि समुझे है ताते मूढ कहवाय ॥ ८ ॥
ध्यान धरे करि इंद्रिय निग्रह, विग्रहसों न गिने निज नत्ता॥ सागि विभूति विभूति मढे तन, जोग गहे भवभोग विरत्ता ॥ मौन रहे लहि मंद कपाय, सहे वध वंधन होइ न तत्ता॥
ए करतूति करे सठ पें, समुझे न अनातम आतम सत्ता ॥ ९॥ अर्थ नाना प्रकारका आसन लगाय ध्यान धरे है तथा इंद्रिय दमन करे है अर देहके प्रीतिका है नाता छोडदे है । धन संपदका त्याग करे तथा स्नान करे नहि ताते शरीरकुं धूल लिप्त हो रही है, * त्रिकाल प्राणायामादि योग साधन करे है तथा संसार देह भागते विरक्त हो रहे है । मौन धारण करि र कषाय मंद करे है, अर वध बंधनकुं सहन करे है पण अंतरंगमें तप्त नहि होय है। ऐसी ऐसी क्रिया 9 करे है परंतु, अनात्मसत्ता अर आत्मसत्ता भिन्न भिन्न नहि समुझे है ताते मूढ कवाय ॥ ९॥
चौ०-जो बिन ज्ञान किया अवगाहे । जो विन क्रिया मोक्षपद चाहे ॥ जो विन मोक्ष कहे मैं सुखिया । सो अजान मूदनिमें मुखिया ॥ १० ॥
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