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समय-
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सार. अ०७
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तिन• नवीन कर्मका बंध होयनहीं अर पूर्वकर्मकी निर्जरा होय है, अर विषयसुखकी इच्छा नहि। करे तथा शरीरमें मोह रखे नहीं तिस कारणते ज्ञानी परिग्रहते अलिप्त कहवाय ॥ ३३ ॥
॥ अव सम्यक्तीकू संसारीक सुख दुःखकी उपाधि नहि लगे ताका दृष्टांत कहे है ॥ सवैया ३१ सा - जैसे काहु देसको वसैया बलवंत नर, जंगलमें जाई मधु छत्ताकों गहत है ॥ वाकों लपटाय चहु ओर मधु मच्छिका पैं, कंवलकि ओटसों अडंकीत रहत है ॥ - तैसे समकीति शीव सत्ताको स्वरूप साधे, उदैके उपाधीको समाधीसि कहत है ॥ __ पहिरे सहजको सनाह मनमें उच्छाह, ठाने सुख राह उदवेग न लहत है ॥ ३४॥ ___ अर्थ जैसे कोई सशक्त मनुष्य जंगलमें जाय मधु छत्ताकू निकाले है । तब चारि तरफ मक्षिका ६ लपटाइ जाय है, परंतु कंबल वोढि राख्या है तातें तिसकुँ मक्षिकाका डंक लगे नही । तैसे सम्यक्ती है जीव मोक्षमार्गकू साधे है, तब कर्मोदयकी अनेक सुख दुःखादि उपाधि आय लागे है, परंतु सम्यक्ती है ज्ञान बकतर पहिरे है अर कर्मकी निर्जरा करनेका उच्छाह मनमें धारे है, ऐसे अनंत सुखमें तिष्ठे है। ताते सम्यक्ती• उपाधीका खेद नहि होय है समाधीसी लागे है ॥ ३४॥
॥ अव ज्ञाताका अवंधपणा वतावे है ॥ दोहा॥ज्ञानी ज्ञान मगन रहे, रागादिक मल खोइ । चित्त उदास करणी करे, कर्मबंध नहिं होइ॥३५॥ । मोह महातम मल हरे, घरे सुमति परकास। मुक्ति पंथ परगट करे, दीपक ज्ञान विलास॥३६॥
अर्थ-ज्ञानी है सो ज्ञानमें मग्न रहे है, तथा राग द्वेष अर मोहादिक दोषकू छोड देवे है । अर जे जे संसारीक भोगोपभोगके कार्य है ते सब चित्तमें उदासीनरूप होय करे है, ताते ज्ञानीकू कर्म
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॥५५॥