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सार
समय
अ०७
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RANSLAMSANGAIRLIA
है अर्थ-जो जैसा द्रव्य है तिसमें तैसाही स्वभाव स्वयं सिद्ध है, कोई द्रव्य काहू अन्य द्रव्यका *
स्वभाव नहि ग्रहण करे है । जैसे शंख उज्जल है सो नाना प्रकारकी माटी भक्षण करे है, परंतु शंख है ॐ माटी सदृश नहि होय है सदा उज्जलही रहे है । तैसे ज्ञानवंतहूं परिग्रहके संयोगते नाना प्रकारके है 9 भोग भोगे है, परंतु अज्ञानता नहि लहे है । ज्ञानीके ज्ञानकलाकी तो सदा वृद्धीही होय है अर * भ्रमदशा दूर होय है, तथा भव स्थीति कमति होके अल्प कालमें संसारते मुक्त होय है ऐसे बनार- ५ सीदास कहे है ॥ ३८॥
॥अव सद्गुरु मोक्षका उपदेश करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥__ जोलों ज्ञानको उद्योत तोलों नहि बंध होत, वरते मिथ्यात्व तव नाना बंध होहि है॥
ऐसो भेद सुनीके लग्यो तूं विषै भोगनीसुं, जोगनीसु उद्यमकि रीति तैं विछोहि है ॥ सूनो भैया संत तूं कहे मैं समकीतवंत, यह तो एकंत परमेश्वरका द्रोहि है ॥ विषैसुं विमुख होहि अनुभौ दशा आरोहि, मोक्ष सुख ढोहि.तोहि ऐसी मति सोहि है ॥३९॥
अर्थ-जबतक सम्यग्ज्ञानका उद्योत है तबतक कर्मबंध नहि होय है, अर जब मिथ्यात्व (अज्ञान) * भावका उद्योत होय है तब नाना प्रकारका कर्मबंध होय है। ऐसे ज्ञानके महिमाका भेद कह्या सो , सुनीके तूं [ अथवा कोई ] विषय भोगने लग जाय है, अर संयम ध्यानादिकळू तथा चारित्रकू छोडे ॐ है। अर कहे है मैं सम्यक्ती है, सो हे भव्य ? यह तुम्हारा कहना एकांत मिथ्यात्वरूप है अर ६ आत्माका द्रोही ( अहित करणारा ) है । ताते अब मेरी बात सुनो तुम विषय सुखते पराङ्मुख होके हूँ आत्माका अनुभव करी मोक्षका सुख देखो, ऐसी बुद्धि करना तुमको शोभे है ॥ ३९ ॥.
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