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एकता न दुहिता वांछा फूरे नांहि, ऐसे भ्रम कारीजको मूरख चहत है ॥ सतत रहे सचेत परेसों न करे हेत, याते ज्ञानवंतको अवछक कहत है ॥ ३२ ॥
अर्थ — जगतमें मन वांछित विलास करने योग्य जे जे भोग सामग्री है, ते ते समस्त नाशिवंत है अपने राखे नहि रहे है । अर भोगके अभिलाषरूप जे जे मनके परिणाम है, ते तेहूं चंचलरूप धारावाही नाशिवंत है । ए भोग अर भोगके परिणाम इन दोनूंमें एकता नहीं है अर विनश्वरपणा है ताते ज्ञानीकी भोगविर्षे इच्छा नहि होय है, ऐसे भ्रमरूप कार्यकू तो मूर्ख होय सो चाहे है । ज्ञानी तो निरंतर अपने आत्मस्वरूपमें सावधान रहे है अर पर वस्तुकी इच्छा नहि करे है, तातें ज्ञानवंतको निर्वाक कहे है ॥ ३२ ॥
॥ अव सम्यक्ती परिग्रहते अलिप्त कैसा कहवाय ताका दृष्टांत कहे है । सवैया ३१ सा ॥जैसे फिटकfs लोद हरडेकि पुंट विना, स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमें || रहे चिरकाल सर्वथा न होइ लाल, भेदे नहि अंतर सुपेदी रहे चीरमें ॥ तैसे समकीतवंत राग द्वेष मोह विन, रहे निशि वासर परिग्रहकी भीरमें ॥ पूरव करम हरे नूतन न बंध करे, जाचे न जगत सुख राचे न शरीरमें ॥ ३३ ॥
अर्थ — जैसे स्वेतवस्त्र मजीठ रंगके नीरमें चिरकाल भिज्या रहे तोहूं । लोद फटकडी अर हरडे ये कषायले द्रव्य है इनका पूट दीये विना वस्त्र लाल होय नही, वस्त्रके अंतर रंग भेदे नहीं सुपेदही रहे । तैसे सम्यग्दृष्टी रात्रंदिन परिग्रहके भीरमें रहे, परंतु राग द्वेष अर मोह विना रहे हैं । तातें