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समय-
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अर्थ-जो हितरूप परिणाम सो राग (प्रीति) है अर जो अहितरूप परिणाम सो विरोध (द्वेष) है । पर पदार्थमें आत्मपणाका भ्रमरूप परिणाम सो मोह है अर राग द्वेष तथा मोहमल रहित निर्मल * परिणाम ते सम्यक्ज्ञान है ॥ ८॥
॥ अव राग द्वेष अर मोहका स्वरूप कहे है ॥ दोहा ॥* राग विरोध विमोह मल, येई आश्रव मूल । येई कर्म बढाइके, करे धरमकी भूल ॥ ९॥ है अर्थ-राग द्वेष अर मोह है सो आत्माकू मल ( दोष ) है अर ये दोष आश्रवका मूल है । अर ॥ येई आश्रव कर्मको बंधाइ करि धर्म (आत्मस्वरूप) को मुलाइ देवे है ॥ ९॥
॥ अव ज्ञाता निराश्रवी है सो कहे। है ॥ दोहा ॥ॐ जहां न रागादिक दशा सो सम्यक् परिणाम । याते सम्यक्वंतको, कह्यो निराश्रव नाम ॥१०॥. ६ अर्थ-जहां राग द्वेष अर मोह अवस्था नहि है सो सम्यक् परिणाम है । यातें सम्यक्वंतको है र निराश्रव नाम कह्या है ॥ १०॥
॥ अव ज्ञाता निराश्रवपणामें विलास करे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जे कोई निकट भव्य रासी जगवासी जीव, मिथ्यामत भेदि ज्ञान भाव परिणये हैं । जिन्हके सुदृष्टीमें न राग द्वेष मोह कहूं, विमल विलोकनिमें तीनूं जीति लये हैं। तजि परमाद घट सोधि जे निरोघि जोग, शुद्ध उपयोगकी दशामें मिलि गये हैं। तेई बंध पद्धति विडारि पर संग झारि, आपमें मगन व्है के आपरूप भये हैं ॥११॥
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