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समय- ॥अथ श्रीसमयसार नाटकको छठो संवर द्वार प्रारंभ ॥६॥ Is . . ॥दोहा-आश्रवको अधिकार यह, कह्या जथावत् जेम।
___ अब संवर वर्णन करूं, सुनहु भविक धरि प्रेम ॥१॥ है अर्थ-अब आश्रवके अधिका स्वरूप यथावत ( जैसा है तैसा ) कह्या । अब संवरका स्वरूप % । कहूहूं सो भविजन हो तुम प्रेम धरिके श्रवण करो ॥१॥
॥ अव संवर द्वारके आदिमें ज्ञानकू नमस्कार करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥॥ आतमको अहित अध्यातम रहित ऐसो, आश्रव महातम अखंड अंडवत है ॥
ताको विसतार गिलिवेकों परगट भयो। ब्रहमंडको विकाश ब्रहमंडवत हैं ॥ __ जामें सब रूप जो सबमें सब रूपसों पैं, सबनिसों अलिप्त आकाश खंडवत है ॥... ', .. __ सोहै ज्ञानभान शुद्ध संवरको भेष धरे, ताकी रुचि रेखको हमारे दंडवत है ॥२॥ ६
अर्थआत्माका अहित करनेवाला अर आत्म स्वरूप रहित ऐसे, आश्रवरूप महा अंधःकारने ६ । अखंड अंडाके समान् जगतके सर्व आत्माकू सब तरफते घेर राख्या है। तिस अंधःकारके विस्तारका हूँ
नाश करनेकू प्रत्यक्ष ज्ञानका प्रकाश ब्रह्मांड (सूर्य) वत् है, सो समस्त ब्रम्हांड (त्रैलोक्य ) कू है ॐ प्रकाश करनेवाला है। तिस ज्ञानमें समस्त पदार्थोंके आकार झलके है अर आपहूं सब पदार्थोंके Is आकाररूप होय रहे है; तथापि समस्त पदार्थोंसे आकाशके प्रदेश समान् अलिप्त है। सो ज्ञानरूप,
सूर्य शुद्ध संवरको भेष धरे है, तिसके प्रकाश• हमारो दंडवत है ॥ २ ॥
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