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है ताते एक है अर पुद्गलद्रव्य है सो अनंतता लिये रह्या है इनकी प्रकृति ( स्वभाव ) भिन्न भिन्न है। सो जीव अर पुद्गल समान कैसे होय ? । इस जगत्में जे जे द्रव्य है ते ते समस्त अपने अपने स्वभावयुक्त है जैसा जैसा जिसका स्वभाव है तैसे तैसेही सहज (स्वाभाविक) परिणमन होय है। ताते जडरूप कर्मको कर्त्ता जीव है ऐसे वचन जे जीव मोहते विकल है ते कहे है ॥ ३४ ॥
॥ अव जीवका सिद्धांत (आत्म प्रभाव. कथन) समजावे है ॥ छप्पै ।जीव मिथ्यात् न करे, भाव नहि घरे भरम मल । ज्ञान ज्ञानरस रमे, होइ करमादिक पुदगल । असंख्यात परदेश शकति, झगमगे प्रगट अति । चिविलास गंभीर धीर, थीर रहे विमल मति । जबलग प्रबोध घट महि उदित, तवलग अनय
न पेखिये । जिम धरमराज वरतंत पुर, जिहि तिहि नीतिहि देखिये ॥ ३५॥ । | अर्थ-जीव है सो मिथ्यात्वकर्म करे नही, अर भ्रमरूप भाव मलकुंहूं धरे नहीं । जीव ज्ञानयुक्त | है अंर ज्ञानगुण है सो ज्ञान रसमेंही रमे है, ज्ञानावरणादिक तथा रागद्वेषादिक कर्म है ते पुद्गल द्रव्यकी । सामग्री है सो पुद्गल द्रव्यते होय है। अर ये जीवके तो असंख्यात प्रदेश है, तिनिविपे ज्ञानकी अति शक्ति प्रत्यक्ष झगमगे है । ज्ञानविलासमें गंभीर धीर स्थीर अर विमल मतिवंत ऐसी शक्ती है। ऐसा ही प्रबोध सम्यक्ज्ञान राजा जबतक हृदयमे प्रकाशमान हो रह्या है, तबतक मिथ्यात्वादि अन्याय नहि । होय है । जैसे—जिस पुरमें धर्मवंत राजा प्रवर्ते है तिस पुरमें जहां तहां नीतिहि देखिये है ॥ ३५ ॥ ॥ इति श्रीसमयसार नाटकको कर्ता कर्म क्रिया त्रितीय द्वार बालबोध सहित समाप्त भयो ॥ ३ ॥
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