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कारणादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात माहि, ऐसो द्वैत भाव ज्ञान दृष्टिमें न लेखिये ॥
दोउ महा अंध कूप दोउ कर्म बंध रूप, दुहुंको विनाश मोक्ष मारगमें देखिये ॥ ६॥ | अर्थ जैसा पापका बंध होय है तैसाही पुन्यका पण बंध होय है अर जहां बंध है तहां मुक्ति नही अर मुक्ति मार्ग रोकनेको कारण दोऊ बंध है ताते पाप पुन्यको कारणभी समान है, तथा जेस दुःख रस पाप अर सुख रस पुन्य ये दोऊ रस पुद्गलकेही है ताते पाप अर पुन्य इन दोऊके |||| सभी एक समान है । संक्लेश स्वभाव पाप है तथा विशुद्धि स्वभाव पुन्य है दोऊकेहूं स्वभाव कर्मकी । वृद्धि करानेवाले है तातै दोऊका स्वभावभी एक समान है, पापका फल कुगति है अर पुन्यका फल| 5 सुगति है तथा पापपुन्यते कर्मका क्षय नहि होय है जगत स्थिर करानेवाले जाल है ताते पापपुन्यका द फलभी एक समान है। गुरु कहे है हे शिष्य ? तुझै जे पापपुन्यमें ( कारण, रस, स्वभाव, फल,)
भेद दीखे है सो अज्ञानपणा ते दीखे है, अर जब अज्ञानभाव दूर करि ज्ञानदृष्टीते देखिये तब पापपुन्यमें द्वैतभाव दीखेही नही ये आत्माके एक बाधक बंधही है । इन दोऊते आत्माका अवलोकन ? नही होय ताते ये महा अंध कूप है तथा ये दोनुंहूं कर्म है ते बंधरूप है, अर मोक्षमार्गमें इन दोऊका । त्याग कह्या है ताते ये दोऊ समान है ॥ ६ ॥
॥ अव मोक्ष मार्ग में पापपुन्यका त्याग कह्या तिस मोक्ष पद्धतीका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥सील तप संयम विरति दान पूजादिक, अथवा असंयम कषाय विषै भोग है।। कोउ शुभरूप कोउ अशुभ स्वरूप मूल, वस्तुके विचारत दुविध कर्म रोग है।
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