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समय
॥३४॥
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कर्त्ता कहीये है अर जो जाने है ताकूं ज्ञाता कहीये है । जो कर्त्ता है सो ज्ञाता नहि होय अर जो ज्ञाता है सो कर्त्ता नहि होय ॥ ३२ ॥
॥' अत्र जे ज्ञाता जाननहार है ते अकर्ता कैसा होय सो कहे है | सोरठा ॥ज्ञान मिथ्यात न एक, नहि रागादिक ज्ञान मही ॥ ज्ञान. करम अतिरेक, जो ज्ञाता सो करता नही ॥ ३३ ॥
अर्थ- ज्ञानभाव अर मिध्यात्वभाव एक कहवाय नही, तथा राग द्वेष अर मोह इत्यादिक भाव ज्ञानमें होय नहिं । ज्ञान है सो कर्मते न्यारे है, ताते जो ज्ञाता है सो भावकर्मका कर्त्ता नही है ॥ ३३ ॥ ॥ अब मिथ्यात्वी है सो द्रव्यकर्मका कर्त्ता नहि भावकर्मका कर्ता है सो कहे है ॥ छप्पै ॥—
करम पिंड अरु रागभाव, मिलि एक होय नहि । दोऊ भिन्न स्वरूप वसहि, दोऊ न जीव हि । करम पिंड पुद्गल, भाव रागादिक मूढ भ्रम । अलख एक पुद्गल अनंत, किम धरहि प्रकृति सम । निज निज विलास जुत जगत महि, जथा सहज परिणमहि तिम । करतार जीव जड करमको, मोह विकल जन कहहि इम ॥ ३४ ॥
अर्थ — ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म अर रागद्वेपादिक भावकर्म ये दोऊ मिलि एकरूप नहि होय है इनि दोऊका भिन्न भिन्न स्वभाव है अर दोऊ कर्म जीवमें नहि रहे है । ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म है सो पुद्गलरूपी है अर रागादिक भाव कर्म है सो जीवके विभाव ( भ्रम ) रूपी है ते जीव अहंवुद्धि करे है। अर जीव है सो दोऊ कर्मते अलख ( भिन्न ) है तथा किसीमें मिले नहि एकता लिये रहे
सार
अ० ३
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