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है ऐसा मिथ्याभाव ( मोहकर्म ) जीवके अनादि कालते लगि रह्या है, ताते या मोहकर्मके प्रतापसे ।
जीवकी परद्रव्य तरफ आत्मबुद्धि होयके नाना प्रकार पर्यायरूप आप हो रह्या है । अर जब कोई जीव मिथ्यात्व अंधकारकू भेदे है, अर परद्रव्यमें जो आत्मपणा था ताका उछेद करे है तथा आत्माके शुद्ध |
परिणामका परिणमन होय है । तब जड अर चेतनका विवेक ( भेदज्ञान) धारण करिके बंधके 5 विलास कहिये हेतू ( १२ अविरत २५ कषाय १५ प्रमाद अर १५ योग) कू छोडे है, अर अपने आत्मशक्तीसे संपूर्ण कर्मका क्षय कर जगतसे मुक्त होय है ॥ ११ ॥
॥ अव यथा कर्म तथा कर्त्ता एकरूप कथन ॥ सवैया ३१ सा ॥शुद्धभाव चेतन अशुद्धभाव चेतन, दुहूंको करतार जीव और नहि मानिये ॥ कर्मपिंडको विलास वर्ण रस गंध फास, करता दुहूंको पुदगल परवानिये ॥
ताते वरणादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म, नाना परकार पुदगल रूप जानिये ॥ .. समल विमल परिणाम जे जे चेतनके, ते ते सव अलख पुरुष यों बखानिये ॥ १२॥
अर्थ-चेतनमें शुद्ध ज्ञायक परिणाम तथा अशुद्ध रागादिक परिणाम जे देखने में आवे है ते तो परिणामरूप चेतन कर्मके विलास है, ताते इन दोऊ परिणामका कर्ता जीव द्रव्य है दूजा कोउ कर्ता मानिये नही । अर ज्ञानको ढकणो तथा दर्शनको ढकणो इत्यादिक जे है ते जड ( पिंड ) कर्मके विलास ( हेतू ) है तथा स्पर्श रस गंध अर वर्ण इत्यादिक जे है ते पिंडकर्मके कार्य है, पिंडकर्मके ।
हेतु (कारण) अर पिंडकर्मके कार्य इन दोऊका कर्ता पुद्गलद्रव्य है सो प्रमाण है । ताते स्पर्श रस गंध 5अर वर्ण इत्यादि गुणयुक्त शरीर तथा ज्ञानावरणादिक कर्मके स्कंध ऐसे नाना प्रकारके भेद है ते एक
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