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जालहरते भ्रममें मग्न हो रह्यो अर बहुत देह धारण करि आपनी मानि रह्यो । अब गुरूके प्रसादते मेरेकू ।
ज्ञानकी कला जाग्रत होनेसे मिथ्यात्वरूप भ्रमकी दृष्टी भागी, ताते अपने अर परके वस्तूकी पहिचान दभई है । तिस ज्ञानके कलाका उदय होते प्रमाण ऐसी पहिचान भई है की ? हमारे परंपराकी शुद्धि Kआय निश्चयते हमारी आत्मज्योती हमने जानि लिई है ॥ २७ ॥
॥ अव ज्ञाता होय सो आत्मानुभवमें विचार करे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जैसे महा रतनकी ज्योतिमें लहरि ऊठे, जलकी तरंग जैसे लीन होय जलमें ॥ तैसे शुद्ध आतम दरव परजाय करि, उपजे विनसे थिर रहे निज थलमें ॥ ऐसो अविकलपी अजलपी आनंद रूपि, अनादि अनंत गहि लीजे एक पलमें ॥
ताको अनुभव कीजे परम पीयूष पीजे, बंधकों विलास डारि दीजे पुदगलमें ॥ २८॥ l अर्थ-जैसे उत्तम रत्नके ज्योतिमें लहर (चमक) उठे है अर वो लहर ज्योतिर्मही समाय जाय है ज्योतिकी लहर रत्नसे भिन्न नहि है, अथवा जैसे पाणीकी तरंग पाणीही समाय जाय है । तैसे शुद्ध आत्मद्रव्यका जो ज्ञान प्रमुख गुणका पर्याय है, सो पर्यायार्थिकनयते समय समय उपजे है तथा विनसे है अर द्रव्यायार्थिक नयते अपने द्रव्यस्थानमें स्थिर रहे है उपजना अर विनशना ए विकल्प 8. पर्यायके आश्रयते होय है द्रव्यमें विकल्प नहीं है । ऐसे विकल्प रहित स्थीर अर आनंदमय जे
आत्मद्रव्य है, ते अनादि अनंतकाल सूधि एक रूप रहे है ऐसे ग्रहण ( श्रद्धान) करना । अर तिस आत्मद्रव्यका अनुभव करना तथा अनुभवमें परम अमृत रस उपजे है सो पीवना, अर कर्मबंधका विलास आत्मामें दीखे है सो पुद्गलका है ऐसा जानिके तिसकू पुद्गल सामग्रीमें डारि देना ॥ २८ ॥