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समय
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ऐसी नय कक्ष ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीवः समरमि भये एकनासो नहि टले है॥ महा मोहनासे शुद्धअनुभो अभ्यासे निज बल परगासि मुखरासी मांहि रले है ॥२६॥
अर्थ-पहलो तो निश्चय नय है अर टूजो व्यवहार नय है, ये दोऊ नयचं एकएक द्रव्यके गुण ६ अर पर्यायके साथ फैलाइये तो अनंत द्रव्यको अपेक्षा लिये नयके अनंत भेद फैले है। जैसे जैसे । नयके भेद फैले है तैसे तैसे मनके कलोल (तरंग) पण अनंत भेद फैले है, ते मनके तरंग चंचल स्वभावरूप होय पट्गुणी हानी वृद्धीते लोकालोकके प्रदेश प्रमाण होय है। ऐसे नयकी सेनाके एकांत पक्षवं ज्ञानी जीव छोडे है, अर समरस भाव होय रहे है तथा समस्त नयके विस्तारमें आत्मम्बर
पकी एकतासो नहि टले है । सो समरसी भाववाला जीव महा मोहका नाश करि शुद्ध आत्माके है ६ अनुभवका अभ्यास करे है, अर स्वशक्ति (ज्ञान) का प्रकाश करि मुखराशि जो मोक्षपद तिलिमें। मिलिजाय है ॥ २६ ॥
॥अब व्यवहार अर निश्चय बताय चिदानंदका मत्यस्वरूप कहे है ॥ मया ३१ सा ।।जैसे काहु वाजीगर चोहटे बजाई ढोल, नानारूप धरिके भगल विद्या ठानी है ॥ * तैसे में अनादिको मिथ्यात्वकी तरंगनिसों, भरममें धाइ बहु काय निजमानी है ।।
अव ज्ञानकला जागि भरमकी दृष्टि भागि, अपनि पराई सव सोज पहिवानी है। जाके उदै होत परमाण ऐसी भांति भइ, निह हमारि ज्योति सोई हम जानी है ॥ २७ ॥
अर्थ-जैसे कोऊ वाजीगर चौहटेमें ढोल बजावे है, अर नाना प्रकारका स्वांग धरि ठगविद्या , करे तिसळू देखि लोक सांची माने है। तैसे मैंहू संसारी जीव अनादि कालसे मिथ्यात्वरूप विपके ,
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