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समय
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॥३१॥
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है तब कलश होय है । तैसेही पुद्गल परमाणू पुंज कर्म वर्गणाका रूप धरे है । अर ज्ञानावरणादि अष्ट । कर्मरूप होय विचरे है सो कर्मरूप तो पुद्गल परमाणुही है। परंतु तिसळू बाह्य निमित्त संसारी आत्मा है ।
अ०३ सो संशय विपर्यय अर भ्रमरूप अज्ञानी होय है । अर शरीरादिकमें तथा राग द्वेषादिकमें आत्मपणाका कि अहंकार माने है तातें पुद्गलपरमाणु है ते कर्मरूप होय परिणमे है ॥ २३ ॥ ॥अब निश्चयसे जीवकू अकर्ता मानि आत्मानुभवमें रहे है ताका महात्म कहे है ॥ सवैया २३ सा॥
जे न करे नय पक्ष विवाद, धरे न विषाद अलीक न भाखे॥ जे उदवेग तजे घट अंतर, सीतल भाव निरंतर राखे ॥ जे न गुणी गुण भेद विचारत, आकुलता मनकी सब नाखे ॥
ते जगमें घरि आतम ध्यान, अखंडित ज्ञान सुधारस चाखे ॥ २४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य एक नयके पक्षपातते वाद करे नहि, द्वेष धरे नही अर असत्य वचन बोले, KK नही है । अर जो आतै रौद्र ध्यानकू छोडिके हृदयमें कषाय रहित होय शीतल परिणाम निरंतर राखे । । है । अर जो आत्मा गुणी है तथा ज्ञान गुण है ऐसा भेद न करे है (ध्याता अर ध्येय एक होजाता
है) तब मनके समस्त विकल्प नष्ट होय शुद्ध आत्मानुभवी होय है । सोही मनुष्य जगतमें आत्मध्यान धरिके केवलज्ञानरूप अमृत रस अखंड चाखे है ॥ २४ ॥
॥ अव निश्चयसे अकर्त्तापणा अर व्यवहारसे कर्तापणा स्थापन करि यतावे है ॥ सवैया ३१ सा॥व्यवहार दृष्टिसों विलोकत बंध्योसों दीसे, निहचै निहारत न बांध्यो यह किनही॥ एक पक्ष बंध्यो एक पक्षसों अबंध सदा, दोउ पक्ष अपने अनादि धरे इनही ॥
SECRESS
POTASSAS
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