________________
समय-
॥२८॥
GLISHIGUSLUGESIOG
पुदलद्रव्य है सो जानना । चेतनके जे जे शुद्ध परिणाम है तथा अशुद्ध परिणाम है, ते ते समस्त सार
अलख अरूपी चेतनद्रव्य है [ अशुद्ध परिणाम कर्मके प्रभावते होय है अर शुद्ध परिणाम कर्मके ॐ अभावते होय है ताते कर्ता अर कर्म एकही है ] ऐसे ज्ञानी कहे है ॥ १२॥
॥ अव ये वातके रहस्यकू मिथ्यादृष्टी जानेही नहि है ते ऊपर दृष्टांत कहे है ॥ सवैया ३१॥जैसे गजराज नाज घासके गरास करि, भक्षण खभाव नहि भिन्न रस लियो है। जैसे मतवारो नहि जाने सिखरणि स्वाद, जुंगमें मगन कहे गऊ दूध पियो है ॥ तैसे मिथ्यामति जीव ज्ञानरूपी है सदीव, पग्यो पाप पुन्यसों सहज शुन्न हियो है ॥ चेतन अचेतन दुहुकों मिश्र पिंड लखि, एकमेक माने न विवेक कछु कियो है ॥१३॥
अर्थ-जैसे नाज अर घास दोऊका मिल्याहुवा ग्रास हाथी• देवे सो खाय है, पण हाथीको ( स्वभाव ऐसा है की नाजका अर घासका जुदा जुदा स्वाद लेय नही । अथवा जैसे कोऊ माणस हैं मद्यपान करि मतवारो होय तिसकू धई अर मिश्रिके मिलापते वणी शिखरणी खवावें अर पूछिये की हैं इसका स्वाद कैसा है ? तव तो कहे की ये तो गायका दूध पीये जेवा है, पण ताळू दारूके गुंगीमें 2
शिखरणीके स्वादकी खबर पडे नही । तैसे अनादि कालको मिथ्यादृष्टी जीवही सदैव ज्ञानरूपी है, ॐ परंतु पापकर्ममें अर पुण्यकर्ममें लीन हो रहा है (आपकू पुन्य अर पापरूपही माने है) तथा आत्मस्वरूप ६ जानने शुन्य हृदय होरहा है। ताते चेतन अर अचेतन दोऊका मिल्या हुवा देहपिंड• देखि एक हूँ रूप माने है (पुद्गलके मिलापते चेतनकुं कर्मको कर्त्ता माने है ) पण स्वपरका भेद जाणणारा विवेक हैं हृदयमें कछुभी नाहि करे है ॥ १३ ॥
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ