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समय
सार.
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'जाही समै जीव देह बुद्धिको विकार तजे, वेदत स्वरूप निज भेदत भरमको ॥
महा परचंड मति मंडण अखंड रस, अनुभौ अभ्यास परकासत.परमको ॥ 'ताही समै घटमें न रहे विपरीत भाव, जैसे तम नासे भानु प्रगटि धरमको ॥ - ऐसी दशा आवे जब साधक कहावे तब, करता है कैसे करे पुद्गल करमको ॥३॥
अर्थ-जीव है सो जब [ जिस समयमें श्रेणी• आरोहण होय अप्रमत्तता पावे है ] देहमें आपा-1 ॐ पनाके बुद्धिके विकारकू तजे है, तब निज स्वरूपकुं वेदे (अनुभवे ) अर बुद्धिके भ्रमकू भेदे (नाश * करे ) है । तथा तीक्ष्णबुद्धिको मंडण अखंड है रस जामें, ऐसें आत्माके अनुभवका अभ्यास करे है ता ते ९ हूँ परमात्म स्वरूपका प्रकाश होय है । तिसही समयमें विपरीत भाव ( अहंबुद्धिते कर्मको कर्त्तापणा ) है तिसके घटमें रहे नही, जैसे सूर्यका धरम जो तेज सो प्रगट होते अंधकारका नाश करे है । ऐसी है अनुभव दशा प्राप्त होय जब तो आत्मस्वभावको साधक होय है सो आप कर्मको कर्त्ता होय कैसे ? अर पुद्गलरूपी कर्मळू करे कैसे ? ॥३॥ ॥ अब प्रथम आत्माकू कर्मको कर्त्ता माने पीछे अकर्ता माने है ते ज्ञानके सामर्थ्यसे बने है सो कहे है॥
॥ अव ज्ञानसामर्थ्य कथन ॥ सवैया ३१ सा ॥जगमें अनादिको अज्ञानी कहे मेरो कर्म, करता मैं याको किरियाको प्रतिपाखी है ॥ अंतर सुमति भासी जोगसूं भयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुद्धि नाखी है। निरभै स्वभाव लीनो अनुभौको रस भीनो, कीनो व्यवहार दृष्टि निहमें राखी है ॥ भरमकी डोरीतोरी धरमको भयो धोरी, परमसों पीतजोरी करमको साखी है ॥ ४॥
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