________________
॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको तृतीय कर्ताकर्मक्रियाद्वार प्रारंभ ॥३॥ यह अजीव अधिकारको, प्रगट वखान्यो मर्म ।अब सुनु जीव अजीवके, कर्ता क्रिया कर्म ॥१॥ | अर्थ-अजीव पदार्थसे जीवपदार्थ जुदा है ऐसो व्याख्यान इस अधिकारमें समझाविने प्रगट मर्मी
कह्या, अब जीवके अर अजीवके विषे कर्त्ताकर्मक्रियाको विचार गुरु कहे है सो तुम सुनहूं ॥ १॥ 51 ॥ अव कर्मकर्तृत्वमें जीवकी कल्पना है सो भेदज्ञानसे छूटे है तातै भेदज्ञानका महात्म कहे है ॥ ३१ सा॥
प्रथम अज्ञानी जीव कहे मैं सदीव एक, दूसरो न और मैंही करता करमको ॥ अंतर विवेक आयो आपा पर भेदपायो, भयो बोध गयो मिटि भारत भरमको ॥ भासे छहो दरवके गुण परजाय सब, नासे दुख लख्यो मूख पूरण परमको॥ करमको करतार मान्यो पुदगल पिंड, आप करतार भयो आतम घरमको ॥ २ ॥
अर्थ-प्रथम अज्ञानी जीव स्वस्वरूपके भूलसे ऐसा कहे की निरंतर रागादिक कर्मको कर्त्ता मैंही || एक हूं, अन्य कोई दूजा नहीं है ऐसे अज्ञान अपेक्षा लेयके कर्मको कर्त्ता बने है। परंतु जिसकाल ll
अंतरंगमें विवेक विचार प्राप्त होय अपना अर परका भेद समजे है, तिसकाल सम्यक्ज्ञान बोध प्रगट होय मिथ्यात्वरूप भ्रमको भार मिटिजाय है। अर आपने ज्ञान स्वभावमें गुण पर्याय सहित समस्त पदार्थ । PI( छहद्रव्य ) भासे है, ताते समस्त दुःख विनसे है अर पूर्ण परम ( परमात्मा) का स्वरूप देखे है।||
तदि कर्मका कर्ता पुद्गल पिंड• माने है, अर आप कर्मका अकर्ता होय आत्माके ज्ञान दर्शनादिक 8|गुणका कर्त्ता आप होय है ॥ भावार्थ-कर्मको अकर्ता अर स्वस्वभावको कर्ता मैं हूं ऐसो कहवा Kलगिजाय ॥ २॥ पुनः॥