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श्रध्याय 2
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पांडुलिपि-ग्रन्थ रचना - प्रक्रिया
लेखन और उसके उपरान्त ग्रन्थ-रचना का जन्म भी हमें आदिम आनुष्ठानिक पर्यावरण में हुआ प्रतीत होता है। रेखांकन से लिपिविकास तक के मूल में भी यही है और उसके आगे ग्रन्थ-रचना में भी । प्राचीनतम ग्रन्थों में भारत के वेद और मिस्र की 'मृतकों की पुस्तक' आती हैं। वेद बहुत समय तक मौखिक रहे । उन्हें लिपिबद्ध करने का निषेध भी रहा । पर मिस्र के पेपीरस के खरीतों (scrolls) में लिखे ये ग्रन्थ समाधियों में दफनाये हुए मिले हैं । इन दोनों ही प्राचीन रचनाओं का सम्बन्ध धर्म और उनके श्रनुष्ठानों से रहा है । इन दोनों देशों में ही नहीं अन्य देशों में भी लेखन ऐसे ही आनुष्ठानिक पर्यावरण से युक्त रहा है । प्रायः सभी प्रारम्भिक ग्रन्थों में प्रानुष्ठानिक जादुई धर्म की भावना मिलती है । इसीलिए पद-पद पर शुभाशुभ की धारणा विद्यमान प्रतीत होती है । यही बात ग्रन्थ-रचना सम्बन्धित प्रत्येक माध्यम तथा साधन के सम्बन्ध
में है ।
ग्रन्थ रचना में पहला पक्ष है- 'लेखक' । आरम्भ में लेखक का धर्म प्रचलित परम्पराओं, धारणाओं और वाक्-विलासा को लिपिबद्ध करना था । यह समस्त लोकवार्त्ता 'अपौरुषेय' मानी जाती रही है और वाक् - विलास 'मन्त्र' | इसमें लेखक को अधिक से अधिक 'व्यासजी' की तरह सम्पादक माना जा सकता है। बाद में 'लेखक' शब्द से मौलिक कृति का लेखन करने वाला भी अभिहित होने लगा। मौलिक कृति में कृतिकार को या ग्रन्थकार को किन बातों का ध्यान रखना होता था, इसका ज्ञान हमें पाणिनि के आधार पर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने India As Known to Panini' ( पारिणनि कालीन भारत) में कराया है । उन्होंने बताया है कि पहले ग्रन्थ का संगत रूप - विधान होना चाहिए । इसका पारिभाषिक नाम है - तन्त्र युक्ति । तन्त्र-युक्ति में ये बातें ध्यान में रखनी होती हैं : 1 - अभिकार या संगति अर्थात् प्रांतरिक समीचीन व्यवस्था या विधान । 2 - मंगल - मंगल कामना से प्रारम्भ । ३ हेत्वर्थ - वर्ण्य का आधार । ४- उपदेश कृतिकार के निजी निर्देश । ५ - अपदेश - खंडनार्थ दूसरे के मत को उद्धृत करना ।
इसी पहले पक्ष में लेखक के साथ पाठवक्ता या पाठवाचक भी रखना होगा । यह व्यक्ति मूल ग्रन्थ और लिपिकार के बीच में स्थान रखता है ।
दूसरा पक्ष है भौतिक सामग्री |
'राजप्रश्रीयोपांग सूत्र' (चित्रम की छठी शती) में इनका वर्णन यों किया गया है :
" तस्सजं पौत्थरयणस्स, इमेयारूवे वष्णावासे पष्णत्ते, तं जहां रयग्गामधाई पत्तगाई, रिट्टामईयों कंविया, तब गिज्जयए दोने, नाजामणिमए गंठी, वेरूलियमणिमए लिप्पासणे, रिट्ठामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी वइरामई लक्ष्मी, रिट्ठामयाई कवराई, धम्मिए सत्थे | ( पृ० 96 ) 1
1. मुनि श्री पुण्यविजय जी - भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० 18 पर उद्धृत ।
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