Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन इत्यादि गाथासूत्रमेकं, इति समुदायेन चतुभि:स्थलैर्द्वितीयसप्तकं गतं । एवं चतुर्दशमाथाभिनर्वभिरन्तरस्थलैर्द्रव्यपीठिकायां समुदायपातनिका । तद्यथा । अथास्तित्वस्वरूपं निरूपयति, अथवा सत्तामूलानि द्रव्याणीति कृत्वा पूर्व सत्तास्वरूपं भाणत्वा पश्चात् द्रव्यव्याख्यानं करोमीत्यभिप्राय मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति भगवान्
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-७ अन्वय सहित सामान्यार्ध-( अण्णोपणं पविसंता ) अन्य क्षेत्रसे अन्य क्षेत्रमें परस्परसम्बंध के लिये प्राप्त हुए [ अण्णं अण्णस ] एक दूसरेको ( ओगासं) परस्पर अवकाश (दिता) देते हुए [णिच्चं मिलंता वि य] और सर्वकाल परस्पर मिलते हुए भी ( सग सम्भाव) अपने अपने स्वभावको [पा विजहंति ] नहीं छोड़ते हैं ।
विशेषार्थ-ये छः द्रव्य परस्पर अवकाश देते हुए अपने अपने ठहरनेके काल पर्यंत ठहरते हैं, परन्तु उनमें संकर व्यतिकर दोष नहीं आता है । एकमेक हो जानेको संकर दोष कहते हैं, परस्पर विषय गमकरूप व्यतिकर दोष होता है अर्थात् एक द्रव्यका विषय दूसरे द्रव्यमें चला जावे जैसे जीवका गुण पुद्रलमें । इस गाथामें एक दूसरे में प्रवेश करना जो वाक्य है वह क्रियावान या हलन-चलन करनेवाले जीव और पुइलोंकी अपेक्षासे है, आए हुओंको अवकाश देना यह वाक्य सक्रिय द्रव्य जीव पुद्गलोंका नि:क्रिय द्रव्य के मिलापकी अपेक्षासे है, नित्य सर्व काल मिलके रहते हैं, यह वाक्य निःक्रिय द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और कालकी अपेक्षासे है । इस तरह छः द्रव्यके मध्यमें अपनी प्रसिद्धि, पूजा व लाभ व देखे-सुने अनुभवे हुए कृष्ण, नील, कापोत तीन अशुभलेश्याको आदि लेकर सर्व परद्रव्योंके आलम्बन से उत्पन्न जो संकल्प-विकल्प की तरंगमाला उनसे रहित तथा वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न परमानन्दरूप सुखरसका आस्वाद ऐसा जो परम समतारसमय भाव उस स्वभावसे ज्ञानसे प्राप्त होने योग्य व उससे पूर्ण शुद्ध पारिणामिक परमभावको गंण करनेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे या निश्चयनय से अपने ही शरीरके भीतर प्राप्त जो शुद्ध जीवास्तिकायरूप जीव द्रव्य है सो ही ग्रहण करने योग्य है तथा दूसरे एकांतवादी जो राग, द्वेष, मोहसहित है उनके यहाँ वायुको रोकनेरूप इत्यादि जो सर्व शून्य ध्यानका व्याख्यान है या आकाशका ध्यान है सो सर्व व्यर्थ ही है ।
यहाँ संकल्पविकल्पका भेद कहते हैं
बाहरी चेतन व अचेतन या मिश्र द्रव्यमें यह परिणाम करना कि यह मेरे हैं सो संकल्प है। भीतर हर्ष या विषादका यह परिणाम करना कि मैं सुखी दुःखी हूँ सो विकल्प है।