Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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6. आपृच्छना-सामाचारी - किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व गुरु को पूछना -"है भगवन्!
यह कार्य मैं करूं।" 7. प्रतिपृच्छना-सामाचारी - गुरु ने पूर्व में आदेश दिया था कि यह कार्य अमुक समय में करना,
समय आने पर पुनः पूछे- “भगवन् ! यह कार्य मैं करूं।" 8. छन्दना-सामाचारी - आहार लाने के पश्चात् गुरु की आज्ञा से बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी
आदि को विनती करे कि उनके योग्य हो, तो वे अवश्य आहार ग्रहण करे। 9. निमन्त्रण-सामाचारी - गुरु की आज्ञा से गोचरी जाने से पूर्व यह निमन्त्रण देना -"मैं आपके
योग्य आहार आदि ले आऊँगा।" 10. उपसम्पदा-सामाचारी - ज्ञानादि की वृद्धि के लिए अपने गुरु को छोड़कर अन्य गुरु की निश्रा
ग्रहण करना।
इस प्रकार साधु मूल गुण और उत्तर गुण की परिपूर्ण रक्षा के लिए उपर्युक्त सामाचारी का श्रेष्ठ प्रकार से पालन करे, जिससे भव-परम्परा का अन्त कर भवविरह हो सके। त्रयोदश पंचाशक (पिण्डविधान-विधि)
प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधान-विधि का विवरण प्रस्तुत किया है। आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविशुद्धि के विधान का प्रतिपादन करते हुए निर्देश दिया है कि संयम-रक्षा एवं शरीर-रक्षा के लिए पिण्ड-ग्रहण-विधि से विशुद्ध बाहर की गवेषणा करे। पिण्ड का अर्थ है- आहार। श्रमण-गण को आहार की शुद्धि का ध्यान रखना परम आवश्यक है। इस हेतु, उद्गम आदि दोषों से रहित जो शुद्ध आहार है, उसे ही ग्रहण करना चाहिए। आहार सम्बन्धी दोषों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है।
1. उद्गम-दोष 2. उत्पादना-दोष और 3. एषणा-दोष। 1. उद्गम-दोष- यह दोष आहार बनाते समय गृहस्थ की ओर से लगने वाले दोषों से सम्बन्धित है, जैसेसाधु के निमित्त भोजन बनाना।
उद्गम दोषों की संख्या सोलह है1. आधाकर्म-दोष- साधु को याद करके भोजन बनाना। 2. औद्देशिक-दोष- साधु को देने के लक्ष्य से भोजन बनाना। 3. पूतिकर्म-दोष- शुद्ध आहार को अशुद्ध कर देना। 4. मिश्रजात-दोष- गृहस्थ व साधु- दोनों के निमित्त से भोजन बनाना।
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