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पिंडस्थध्यान
पिड-द्र.स/टी/३/११४/पिण्डस्य कोऽर्थ । मन्द्रत्वस्य बाहुक्य___ स्येति। -पिण्ड शब्दका अर्थ गहराई या मोटाई है। पिडस्थध्यान-पिण्डस्थ ध्यानकी विधिमें जीव अनेक प्रकारकी
धारणाओ द्वारा अपने उपयोगको एकाग्र करनेका उद्यम करता है। उसीका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१ पिंडस्थध्यानका लक्षण व विधि सामान्य
पार्वाभ्युदय
लिखमप्रतिलेख वा गृह्णाति.सुचीकर्तरि न ग्राही, सीवनप्रक्षा- लनावधूननरजनादिबहुपरि कर्मव्यापृतश्च वा पार्श्वस्थ । क्षारचूर्ण सौवीरलवणसर्पिरित्यादिक अनागाढकरणेऽपि गृहीत्वा स्थापयत् पार्श्वस्थ ।-अतिचार रहित संयममार्गका स्वरूप जानकर भी उसमे
जो प्रवृत्ति नही करता है, परन्तु संयम मार्गके पास ही वह रहता है, यद्यपि वह एकातसे असयमो नही है, परन्तु निरतिचार संयमका पालन नहीं करता है, इसलिए उसको पार्श्वस्थ कहते है। जो उत्पादन व एषणा दोष सहित आहार ग्रहण करते हैं, हमेशा एक ही वस्तिकामें रहते है, एक ही सस्तरमें सोते है. एक ही क्षेत्रमे रहते है, गृहस्थोके घरमे अपनी बैठक लगाते है। जिसका शोधना अशक्य है अथवा जो सोधा नहीं गया उसको ग्रहण करते है। सुई, कैंची .. आदि वस्तुको ग्रहण करते है। सीना, धोना, उसको टकना, रंगाना इत्यादि कार्यों में जो तत्पर रहते है ऐमे मुनियोको पार्श्वस्थ कहते है। जो अपने पास क्षारचूर्ण सोहाग चूर्ण, नमक, घी वगैरह पदार्थ कारण न होनेपर भी रखते है उनको पार्श्वस्थ कहना चाहिए। चा. सा./१४३/३ यो वसतिषु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणाना पार्वे तिष्ठतोति पार्श्वस्थ । -जो मुनि बसतिकाओमें रहते है, उपकरणोसे हो अपनी जीविका चलाते है, परन्तु मुनियोके समीप रहते है उन्हे पावस्थ कहते है । (भा. पा./टी/१४/१३७/१७) । * पावस्थ साधु सम्बन्धी विषय-दे० साधु/५ ।
पाश्वाभ्युदय-आ० जिनसेन (ई०८१८-८७८) द्वारा रचित संस्कृत काव्य ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ भगवान्का वर्णन करनेवाला यह काव्य ३६४ मन्दाक्राता वृत्तोमें पूर्ण हुआ है। काव्य रचनाकी दृष्टिसे कवि कालिदासके मेघदूतसे भी बढ़कर है। (ती./२/३४०) । पालंब-भगवान वीरके तीर्थ में अन्तकृतकेवली हुए-दे० अन्तकृत। पालक-राजा अवन्तिका पुत्र मालवा (मगध ) का राजा था।
अवन्ती व उज्जैनो इनकी राजधानी थी, बडा धर्मात्मा था। वीर निर्वाणके समय मगधपर इसीका राज्य था। मगधकी राज्य वंशावलीके अनुसार इसके पश्चात् नन्द वशका राज्य प्रारम्भ हो गया। तदनुसार इनका समय-बी, नि.पू. ६०-० ई०पू०५८६-५२६ आता है (ह.पु/६०/४८८); (ति. प./४/१४०६), (विशेष दे० इतिहास/३/४) । पाहुड़-१. दे० प्राभृत, २. आचार्य कुन्दकुन्द ( ई० १२७-१७६) द्वारा
८५ पाहुड ग्रन्थोंका रचा जाना प्रसिद्ध है, पर उनमें से निम्न १२ ही उपलब्ध है-१समयसार, २ प्रवचनसार, ३ नियमसार, ४ पचास्तिकाय, ५. दर्शन पाहुड, ६ सुत्रप्राहुड, ७. चारित्र पाहुड ८. बोध पाहुड, ६. भावपाहुड, १०. मोक्षपाहुड, ११. लिगपाहुड, १२. शील
१.पिडस्थं स्वात्मचिन्तनम् द्र.सं./टी./४८/२०५ पर उद्धृत-पिण्डस्थ स्वात्मचिन्तनम् ।
-निजात्माका चिन्तवन पिण्डस्थ ध्यान है। (प प्र/टी/१/६/६ पर उद्धृत), (भा. पा /टी./८६/२३६ पर उधृत)।
२. अहतके तुल्य निजात्माका ध्यान वसु. श्रा /४५६ सियकिरणविप्फुरतं अट्ठमहापाडिहेरपरियरिय ।
माइज्जइ ज णियय पिडत्थ जाण त माण ।४५६! -श्वेत किरणोंसे विस्फुरायमान और अष्ट महा प्रातिहार्योसे परिवृत (संयुक्त) जो निज रूप अर्थात् केवली तुल्य आत्मस्वरूपका ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थ ध्यान जानना चाहिए १४५६। (ज्ञा./३७/२८,३२); (गुण० श्रा०/२२८)। ज्ञानसार/१६-२१ निजनाभिकमलमध्ये परिस्थितं विस्फुरद्रवितेज.. ध्यायते अहं दूपं ध्यानं तत् मन्यस्व पिण्डस्थं ।१६। ध्यायत निजकरमध्ये भालतले हृदयकन्ददेशे। जिनरूप रवितेज पिण्डस्थं मन्यस्व ध्यानमिदं ।२०। - अपनी नाभिमें, हाथमें, मस्तकमें, अथवा हृदयमें कमलकी कल्पना करके उसमें स्थित सूर्यतेजवत स्फुरायमान अर्हन्तके रूपका ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है ।१६-२०
३. तीन लोककी कल्पना युक्त निजदेह वसु श्रा./४६०-४६३ अहवा णाहि च वियप्पिऊण मेरु अहोविहायम्मि ।
झाइज्ज अहोलोयं तिरियम्म तिरियए वीए ४६०उड्ढम्म उड्डलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते । गोविज्जमयागीवं अणुद्दिस अणुपएसम्मि ४६॥ विजय च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सव्वस्थ । झाइज्ज मुहपएसे णिलाडदेसम्मि सिद्धसिला ४६॥ तस्मुवरि सिद्धणिलयं जह सिहर जाण उत्तमगम्मि। एवं ज णियदेह झाइज्जइ तं पि पिंडत्थं ४६३ =अथवा अपने नाभि स्थानमें मेरु पर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभागमें अधोलोकका ध्यान करे, नाभि पार्श्ववर्ती द्वितीय तिर्यविभागमें तिर्यग्लोकका ध्यान करे। नाभिसे ऊर्ध्व भागमें ऊर्ध्वलोकका चिन्तबन करे। स्कन्ध पर्यन्त भागमें कल्प विमानोंका, ग्रीवा स्थानपर नवग्रैवेयकोका, हनुप्रदेश अर्थाद ठोडीके स्थानपर नव अनुदिशोका, मुख प्रदेशपर विजय. वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, और सर्वार्थ सिद्धिका ध्यान करे। ललाटदेशमें सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमागमें लोक शिखरके तुल्य सिद्ध क्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता है, उसे भी पिडस्थध्यान जानना चाहिए ।४६०-४६३। (गुण० श्रा०/२२१-२३१); (ज्ञा./३७/३०)।
पाहुड।
-दर्शन पाहडसे लेकर शील पाहुड पर्यन्त आठ ग्रन्थ अष्टपाहुडके नामसे प्रसिद्ध है। इनमें से अन्तिम दो लिंग पाहुड व शील पाहुडको छोडकर शेष छ. षट् प्राभूत कहलाते है। षट्प्राभृतपर आ० श्रुतसागर (ई०१४७३-१५३३) कृत सस्कृत टीका उपलब्ध है। और आठों ही पाहुडपर 40 जयचन्द छाबडाने ई०१८१० में देशभाषामय बचनिका लिखी है। पाहुड़िक-वसतिकाका एक दोष-दे० बसतिका। पिगल-चक्रवर्तीको नव निधियोमेंसे एक-दे० शलाकापुरुष/२। पिजरा-ध. १३/५,३,३०/३४/१ तित्तिरलावादिधरणठ्ठ रइद
कलिजकलावो पंजरो णाम। तीतर और लाव आदिके पकडनेके लिए जो अनेक छोटी-छोटी पचे लेकर बनाया जाता है उसे पिजरा कहते हैं।
१. द्रव्य रूप ध्येयका ध्यान करना त, अनु-/१३४ ध्यातु पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः। ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केचन ।१३४। - ध्येय पदार्थ चूकि ध्याताके शरीरमें स्थित रूपसे ही ध्यानका विषय किया जाता है, इसलिए कुछ आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते है। नोट-ध्येयके लिए-दे० ध्येय ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-८
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