Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 547
________________ विज्ञानाद्वैत विग्रहगति कुछ है सो सव शास्त्रका विस्तारमात्र है। इस कारण मुक्तिका बीजभूत विज्ञान ही है।-(विशेष दे० सारख्य ब वेदान्त)। * विधानवादी बौद्ध-दे० बोद्ध दर्शन । २ सम्यक् विधानवाद ज्ञा /४/२७ में उद्धृत-ज्ञानहीने क्रिया पुसि पर नारभते फलम् । तरोश्यायेव कि लभ्या फलश्रीन दृष्टिभि ।। ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे नि श्रद्धे नार्थ कृद्गद्वयम् । ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा त्रय तत्पदकारणम् १२। हत ज्ञानं क्रियान्य हता चाज्ञानिन· क्रिया। धावन्नप्यन्धको नष्ट' पश्यन्नपि च पडक ३ज्ञानहीन पुरुषको क्रिया फलदायक नही होतो। जिसको दृष्टि नष्ट हो गया है. वह अन्धा पुरुष चलतेचलते जिस प्रकार वृक्षकी छायाको प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्या उसके फलको भी पा सक्ता है ।१. (विशेष दे० चेतना//८, धम/२) । पगुमें तो वृक्षके फलका देव लेना प्रयोजनको नही साधता और अन्धेमें फल जानकर तोडनेरूप किया प्रयोजनका नहीं साधती। श्रद्धान रहितके ज्ञान और क्रिया दोनो हो, पयोजनसाधक नहीं है। इस कारण ज्ञान क्रिया, श्रद्धा तीनों एकत्र होकर ही वाछित अर्थको साधक होती है ।२। क्रिया रहित तो ज्ञान नष्ट है और अज्ञानीकी क्रिया नष्ट होती है। दौड़ते-दौडते अन्धा नष्ट हो गया और देखतादेखता पंगु नष्ट हो गया ।३। (विशेष दे० मोक्षमार्ग/१/२)। दे. नय/उ./१/४ नयनं ४३-(आत्मा द्रव्य ज्ञाननयकी अपेक्षा विवेककी प्रधानतासे सिद्ध होता है)। दे. ज्ञान/IV/१/१ ( ज्ञान हो सर्व प्रधान है। वह अनुष्ठान या क्रियाका स्थान है)। विज्ञानाद्वैत-दे अद्वेत। विग्रह-विग्रहो देह ।.. अथवा। स.सि./२/४/१८२/७ विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात । कर्माद नेऽपि नोकर्म पुद्गलादाननिरोध इत्यर्थ । स सि /२/२७/१८४/७ विग्रहो व्याघात कौटिल्यमित्यर्थ -१ विग्रह का अर्थ देह है । ( रा बा /२/२५/१/ (त मा /२/१६), १०६/२६ ), (ध १/१,१,६०/२६६/१)। २ अथवा विरुद्ध ग्रहका विग्रह कहते है, जिसका अर्थ व्याघात है। तारार्य यह है कि जिम अवस्थामें कर्म के ग्रहण होने पर भी नोर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है। ( रा बा /२/२५/२/१३७/४), (ध १/१.१,६०/२६६/३)। ३. अथवा विग्रहका अर्थ व्याघात या कुटिलता है। (रा. वा/२/ २१ ।१३८/%), (ध १/१.१,६०/२६६/-)। रा, वा /२/२६/१/१३६/२६ औदारिकादिशगेग्नामोदयात् तन्निवृत्तिसमर्थान् विविधान् पुद्गलान् गृह्णाति विगृह्य ते बासौ ससारिणेति विग्रहा देह 1-औदारिकादि नामकमके उदयसे उन शरीरोंके योग्य पुद्गलोका ग्रहण वियह कहलाता है। अतएव संसारो जोबके द्वारा शरोरका ग्रहण किया जाता है। इसलिए देहको विग्रह कहते है। (ध १/१,१,६०/२६६/8)। ध ४/१.३,२/२६/८ विगहो परको कुटिलो त्ति एगहो।-विग्रह, वक्र ओर कुटिल ये सब एकार्थवावी नाम है। विग्रहगति-एक शमेरो छोडकर दूसरे शरीरको प्राप्त करनेके गमन होता है, उसे विग्रहगति कहते है। वह दो प्रकारकी है मोडेवाली और बिना मोडेबाली, क्योंकि गति के अनुश्रेणो हो ह'ने का नियम है। १. विग्रहगति सामान्यका लक्षण स सि./२/२५/१८२/७ विग्रहार्था गतिविग्रहगतिः। विग्रहेण गतिविग्रहगति । -विग्रह अर्थात् शरीरके लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है। अथवा विग्रह अर्थात नोर्म पुद्गलोके ग्रहणके निरोधके माथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते है। (रा. वा /२/२५/१/१३६/३०, २/१३७/५), (ध. १/१,१,६०/१,४ ); (त. सा/२/१६)। गो क./जी.प्र/३१८/१४ विग्रहगतो तेन पूर्वभवशरीरं त्यक्त्वोत्तरभवग्रहणार्थ गच्छता-विग्रहगत्तिका अर्थ है पूर्वभवके शरीरको छाडकर उत्तरभव ग्रहण करनेके अर्थ गमन करना । २.विग्रहगतिके भेद, लक्षण व काल रा, वा./२/२०/४/१३५ आसां चतसृणां गतीनामा!क्ता संज्ञा'इषुगति , पाणिमुक्ता, लाङ्गलिका, गोमूत्रिका चेति । तत्राविग्रहा प्राथमिकी, शेषा विग्रहवत्य । इषुगतिरिवेषुगति । क उपमार्थ । यथे. षोर्गतिरालक्ष्य देशाद ऋज्वी तथा ससारिणां सिद्धयतां च जीवानां ऋज्वी गतिरै कसमयिकी । पाणिमुक्तब पाणिमुक्ता। क उपमार्थ । यथा पाणिना तिर्यप्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा तथा संमारिणामकविग्रहा गति पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी । लाङ्गल मिब लाङ्गलिका । क उपमार्थ । यथा लागल द्विवक्रितं तथा द्विविग्रहा गतिर्लाङ्गलिका त्रैसमयिकी । गोमूत्रिकेव गोमूत्रिका । क उपमार्थ । यथा गोमूत्रिका बहुचक्रा तथा त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातु समयिकी। ये (विग्रह ) गतियाँ चार है-इषुगति, पाणिमुक्ला, लांगलिका, और गोमूत्रिका। घुगति विग्रहरहित है और शेष विग्रहमाहित होतो है । मरल अर्याद धनुषसे छटे हुए बाणके ममान मोडारहित गतिको इषुगति कहते है। इस गतिमें एक समय लगता है। जैसे हाथसे तिरछे फेंके गये द्रव्यकी एक मोडेवाली गति होती है, उसी प्रकार ससारी जीवोंके एक मोडेवाली गतिको पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समयबाली होती है। जैसे हल में दो मोडे होते है, उसी प्रकार दो मोडेवाली गतिको लागलिका गति कहते है। यह गति तीन समयबाली होती है। जैसे गायका चलते समय मुत्रका करना अनेक मोडवाना होता है, उसी प्रकार तीन मोडेवाली गतिको गोम त्रिका गति कहते है। यह गति चार समयवाली होतो है। (ध. १/१,१,६०/२६६/R); (ध.४/१,३,२/२६/७); (त,मा/२/ १००-१०१). (चा सा/१७६/२)। त ना /२/88 सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा । -विग्रह या मोडेसहित और विग्रहरहितके भेदमे वह विग्रहगति दो प्रकारकी है। ३. विग्रहगति सम्बन्धी कुछ नियम त. च /२/२५-२६ विग्रहगती कर्मयोग' १२३अनुश्रेणि गति ॥२६॥ विग्रहवती. प्राक् -चतुर्म्य १२८। एक समयाविग्रहा।२६। एक द्वौ त्रोन्यानाहारक ।३०। -विग्रहगतिमें कर्म (कार्मण) योग होता है (विशेष दे० कार्मण/२) ॥२५॥ गति श्रेणीके अनुसार होती है (विशेष दे०, शीर्षक न ५) ।२६। विग्रह या मोडेवाली गति चार समयोसे पहले होती है; अर्थात अधिकसे अधिक तीन समय तक होती है (विशेष दे० शीर्षक न.५) २८। एक समयवाली गति विग्रह या मोडेरहित होती है। (विशेष दे० शीर्षक न २ में दपुगतिका लक्षण)।२६। एक, दो या तीन समय तक (विग्रह गतिमें ) जोव अनाहारक रहता है ( विशेष दे० आहारक )। ध ११५५ १२०/३७८/४ आणुपुविउदयाभावेण उजुगदीए गमणाभाव पसंगादो। -अजुगतिमे आनुपूर्वी का उदय नहीं होता। देशामण/२ (विग्रहगतिमें नियमसे कार्मणयोग होता है, पर ऋजु गतिमे कार्मणयोग न होकर औदारिकमिश्र और वैक्रियकमिश्र काय योग होता है।) दे० अबगाहना/१/३ ( मारणान्तिक समुद्धातके बिना विग्रह व अविग्रह गतिसे उत्पन्न होनेवाले जोबोके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके समयोसे शोक -२) २६ ) २८एक तीन सम राहत होती है। जैनेन्ट सिद्धान्त कोण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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