Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 545
________________ विकल्प ४. लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है प ध. / / सिद्धमेतावतोकेन सधिर्या प्रा निरुपयोग रूपत्वान्निर्विकल्प स्वतोऽस्ति सा । ८५८ - इतना कहने से यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है, वह स्वत उपयोगरूप न होनेसे निर्विकल्प है। * मति श्रुत ज्ञानकी कथचित् निर्विकल्पता - दे ऊपर | ५. स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है। द्र सं / टी /५/१६ / ३ यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञान तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसदतिस्वरूपं स्वविश्वातरेण सविकल्पमयीन्द्रियमनोजगादिविकारहितत्वेन निश्चय भावभूत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होनेमे सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है । वह यद्यपि निज आत्माके आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मनसे उत्पन्न जो विकल्पसमूह है उनसे रहित होनेके कारण है। ४२/९८४/२) दे. जोग / २ /३/३ [ समाधिकालमै मसवेदनकी निर्मिकता के कारण हो जीवको कथचित् जड़ कहा जाता है । ] ०९६ तस्मादिदमन' स्वात्मप्रये किलोपयोगि मन । किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मन स्वयं ज्ञानम् । ७१६ | पंध / उ / ५६ शुद्ध स्वात्मोपयोगी य स्वयं स्यात ज्ञानचेतना निर्विकल्प स एकान्तमते १८७६| यहाँपर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किन्तु इतना विशेष है कि विशि दशा मे मन स्त्रत ज्ञानरूप हो जाता है । ७१६। वास्तव मे स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्माका उपयोग होता है यह कात्मक न होनेसे निर्विकल्परूप ही है । ६५६१ ६. स्वसवेदन में ज्ञानका सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा Jain Education International ५३८ टी/४/२०४६ अत्राह शिष्य इत्युक्तप्रकारेण यन्निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान भण्यते तन्न घटते । कस्मादिति चेत् उच्यते । सत्तावलोकरूप चरादिदर्शन जैनमनिविकल्प कथ्यते तथा मोडमते निर्विकल्पक भग्यते । पर विनियमपि विकल्पजनक भवति । जैनमते तु विकल्पस्योत्पादक भवत्येव न किंतु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति । तथैव स्वपरप्रकाशक चेति । तत्र परिहार च सनिर्विकल्पक च तथाहि यथा यस समिति सक्पिमिति पानीहिताना सद्भावेऽपि सति तेषा मुख्य नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पयते तथा स्वद्धात्मसमितिरूपं वीतरागस वेदज्ञानमपिस्वकारे कविकल्पेन किमपि बहिर्विधपानीहितसूक्ष्ममा सद्भावेऽपि सति तेषा मुख्यत्व नास्ति तेन कारणेन निर्विषयमपि भव्यते यत एवेह पूर्वस्वसवि राकारान्तर्मुखमतिभासहियानीक्ष्मा अि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशक च सिद्धम् । प्रश्न- यहाँ शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकारसे प्राभृत शास्त्रमे जो चिकल्परहित स्वरूयेन ज्ञान रहा है. वह पटित नहीं होता क्योकि जैनमतने जैसे सत्तालोकनरूप दर्शन आदि है, उसको निर्विकल्प कसे है, उसी प्रकार श्रीमतमे ज्ञान निर्विकल्प है, तथापि वि को उत्पन्न करनेवाला होता है। और जैनमतमे तो ज्ञान विकल्पको उत्पन्न करनेवाला है ही नहीं, किन्तु स्वरूपसे ही विकल्प सहित है । और इसी प्रकार स्वपर प्रकाशक भी है। उत्तर- परिहार करते है । - जेनसिद्धान्तमे ज्ञानको कथंचिव सविकल्प और कवचित निर्मिम विकल्प माना गया है। सो ही दिखाते है । - जैसे विषयो में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह रागके जामनेरूप विकल्पस्वरूप होनेसेस है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प है उनका सद्भाव होनेपर भी उन विकल्पोको मुख्यता नहीं, इस कारण से उस ज्ञानको निर्वि कल्प भी कहते है । इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो वीतराग स्वसवेदन ज्ञान है वह आत्मसवेदनके आकाररूप एक विकल्पके होनेसे समय है तथा बाह्य विषयो अनिच्छित विकल्पोका उस ज्ञानमे सद्भाव होनेपर भी उनकी उस ज्ञानमें मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञानको निर्विकल्प भी कहते हैं । तथा- क्योकि यहाँ अपूर्व सवित्ति के आकाररूप अन्तरगमे मुख्य प्रतिभासके होनेपर भी बाह्य विषय वाले अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी है। इस कारण ज्ञान निज तथा परको प्रकाश कभी सिद्ध हुआ। ७. शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना - ज्ञा १४१ / ८ न पश्यति तदा किचिन्न शृणोति न जिघति । स्पृष्टं चिचिन जानाति साक्षानिवृ] सितेपद उस ( शुक्त) ध्यानके साक्षान्निर्वृत्तिलेपवत् । समय चित्रामकी मूर्ति की तरह हो जाता है। इस कारण यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ संघता है और न कुछ स्पर्श किये हुएको जानता है |८| ४२-४३ यत्पुनह निमेकत्र नैरन्सग कुत्रचित् अस्ति सध्यानमज्ञापि कमो नमोऽयंत ४२ एकरूपमिवाभाति ज्ञानं भ्यानक्तात । तत् स्यात् पुन पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवति च । ||४३| किन्तु जो किसी विषय मे निरन्तर रूपसे ज्ञान रहता है, उसे ध्यान कहते है, और इस ध्यान में भी वास्तव में क्रम ही है, किन्तु अक्रम नहीं है ।४२। ध्यानको एकाग्रता के कारण ध्यानरूप ज्ञान अक्रमवति की तरह प्रतीत होता है, परन्तु वह ध्यानरूप ज्ञान पुनपुन उसी उसी विषयमे होता रहता है, इसलिए क्रमवर्ती ही है।८४३ ८. केवलज्ञानमें कथंचित् निधि व सविकल्पपना प्र. सा // ४२ परिणमदिनमादा दिखाइ तरस णाणत्ति त जिणिदा खवयतं कम्ममेत्ता |२| = ज्ञाता यदि ज्ञेयपदार्थरूप परिमित होता है यह कहा है यह पीता है ऐसा fere करता है तो उसके ज्ञान होता ही नहीं। जिनेन्द्रदेवो ऐसे ज्ञानको कर्मको ही अनुभव करनेवाला वहा है |४२ | पंध / उ / ८३६, ८४५ अस्ति क्षायिक्ज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात् । नार्थादार्थान्तराकारयोग क्रान्तिलक्षणात १८३६ नोहा तत्राप्यतिव्याशि क्षायिकाव्यक्षसविदि स्यापरिणामश्वेऽपि म तेर सभवात । ८४५१ - स्वलक्षणकी अपेक्षासे साविज्ञान मे जो विकल्पपना है वह अर्थ अन्तराकाररूप योग कान्तिके विकी अपेक्षा नहीं है कि अंतोदय ज्ञानने अशिष्यशिया प्रसंग भी नहीं आता, क्योकि उसमे स्वाभाविक रूपसे परिणमन होते हुए भी पुनर्वृति सम्भव नही है । ८४५ ॥ ९. निर्विकल्प केवलज्ञान शेषको कैसे जाने निसा ता./१०० थमिति चेत पूर्वोत्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थित सतिष्ठति । यथोष्णरव रूपस्याग्ने स्वरूपमग्नि कि जानाति तथैव ज्ञानज्ञेयमाभावाय सोऽसमारमात्मनि तिष्ठति हो प्राथमिक शिष्य अग्नियदस्मारमा विमचेतन । किबहुना । तमात्मान ज्ञान न जानाति चेद्र देवदत्तरहितपरशु इदं हि नार्थक्रियाकारि, असएन मन सकाशाद जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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