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वेद
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३. तीनो वेदोंके अर्थमे प्रयुक्त शब्दोका परिचय
२. वेद जीवका औदायिक भाव है रा. बा /२/६/३/१०६/२ भावलिङ्गमात्मपरिणाम । • स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदवेदनपुसकवेदस्योदयाद्भवतीत्यौदयिका । -भावलिग आत्मपरिणाम रूप है। वह चारित्रमोहके विकल्प रूप जो स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नामके नोकषाय उनके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औदयिक है (पं.ध./उ./१०७५); (और भी. दे. उदय/६/२)।
३. अपगत वेद कैसे सम्भव है ध.५/१,७,४२/२२२/३ एत्थ चोदगो भणदि-जोणिमेहणादीहि समण्णिदं
सरीर वेदो, ण तस्स विणासो अस्थि, संजदाणं मरणप्पसंगा।ण भाववेदविणासो वि अस्थि, सरीरे अविणठे तब्भावस्स विणास बिरोहा। तदोणावगदवेदत्तं जुज्जदे इदि । एत्थ परिहारो उच्चदे–ण सरीरमित्थिपुरिसवेदो, णाम कम्मजणिदस्स सरीरस्स मोहणीयत्तबिरोहा । ण मोहणीयजणिदमवि सरीर, जीवविवाइणो मोहणीयस्स पोग्गलविवाइत्तविरोहा। ण सरीरभावो वि वेदो, तस्स तदो पुधभूदस्स अणुवलंभा। परिसेसादा मोहणीयदव्य कम्मवरवंधो तज्जणिदजोवपरिणामो वा वेदो। तत्य तज्जणिदजीवपरिणामस्स बा परिणामेण सह कम्मक्खंधस्स वा अभावेण अवगदवेदो होदि त्ति तेण णेस दोसो त्ति सिद्भप्रश्न-योनि और लिग आदिसे सयुक्त शरीर वेद कहलाता है। सो अपगतवेदियोके इस प्रकारके वेदका विनाश नही होता, क्योकि ऐसा माननेसे अपगतवेदी सयतों के मरणका प्रसंग प्राप्त होता है। इसी प्रकार उनके भाववेदका विनाश भी नहीं है, क्योंकि, शरीरके विनाशके बिना उसके धर्मका विनाश मानने में विरोध आता है। इसलिए अपगतवेदता युक्ति संगत नहीं है। उत्तर-न तो शरीर स्त्री या पुरुषवेद है. क्योकि नामकर्मजनित शरीरके मोहनीयपनेका विरोध है। न शरीर मोहनीयकर्म से ही उत्पन्न होता है, क्योकि, जीवविपाकी मोहनीय कर्म के पुद्गलविपाको होनेका विरोध है । न शरीरका धर्म ही वेद है, क्योकि शरीरसे पृथग्भूत वेद पाया नहीं जाता। पारिशेष न्यायसे मोहनीयके द्रव्य कर्मस्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते है । उनमें वेद जनित जीवके परिणामका अथवा परिणामके सहित मोहकर्म स्कन्धका अभाव होनेसे जीव अपगत वेदी होता है। इसलिए अपगतवेदता माननेमें उपर्युक्त कोई दोष नहीं आता, यह सिद्ध हुआ।
१.तीनों वेदोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है ध. १/१,१,१०२/३४२/१० उभयोर्वेदयोरक्रमेणैकस्मिस् प्राणिनि सत्त्वं प्राप्नोतीति चेन्न, विरुद्धयोरक्रमेणैकस्मिन् सत्त्वविरोधाद ।
-प्रश्न-इस प्रकार तो दोनो वेदोका एक जीवमें अस्तित्व प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नही, क्योकि, विरुद्ध दो धर्मों का एक साथ एक
जीवमें सद्भाव मानने में विरोध आता है।-(विशेष दे. वेद/४/३)। ध. १/१.१,१०७/३४६/७ त्रयाणां वेदानां क्रमेणव प्रवृत्ति क्रमेण पर्यायत्वात् । तीनो वेदोकी प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है, युगपत
नही, क्योकि वेद पर्याय है। ३. तीनों वेदोंके अर्थमें प्रयुक्त शब्दोंका परिचय
१. स्त्री पुरुष व नपुंसकका प्रयोग दे. वेद/५ ( नरक गतिमें, सर्व प्रकारके एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियोमें तथा सम्मूर्च्छन मनुष्य व पचेन्द्रिय तिर्यचो में एक नपुंसक बेद ही होता है। भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यचोमें तथा सर्व प्रकारके देवोंमें स्त्री व पुरुष ये दो वेद होते है। कर्मभूमिज मनुष्य व पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनो वेद होते है।)
दे० जन्म/३/३ ( सम्यग्दृष्टि जीव सब प्रकारको स्त्रियोमें उत्पन्न नही होते।)
२.तियच व तियचनीका प्रयोग ध १/१,१,२६/२०४/४ तिरश्चीष्वपर्याप्ताद्धाया मिथ्यादृष्टिसासादना एवं
सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात्। तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीमामुत्पत्तेरभावात् । तिर्यचनियोके अपर्याप्तकालमें मिथ्यावृष्टि
और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते है, शेष तीन गुणस्थान नहीं होते, क्योकि तियंचनियोमें अस यत सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्ति
नही होती। दे० वेद/६ (तिय चिनियो में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता।) दे. वेदां५ ( कर्मभूमिज व तियंचनियोमे तीनो वेद सम्भव है। पर भोगभूमिज तिर्यचौमे स्त्री व पुरुष दो ही वेद सम्भव है।)
३ तिथंच व योनिमति तिर्यचका प्रयोग दे० तिर्यच/२/१,२ (तियंच चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते
है, परन्तु पाँचवें गुणस्थानमे नहीं होते। योनिमति पंचेन्द्रिय तिर्यच चौथे व पाँचवे दोनो ही गुणस्थानोमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि
नहीं होते।) दे. वेद/६ ( क्यो कि, यो निर्मात पचेन्द्रिय तियंचो में क्षायिक सम्यग्दृष्टि
मरकर उत्पन्न नहीं होते।) ध.८/३, ६४/१९४/३ जोणिणीसु पुरिसवेदबंधो परोदओ। -योनिमती तियंचोमें पुरुष वेदका बन्ध परोदयसे होता है ।
४. मनुष्य व मनुष्यणीका प्रयोग गो जी./जी प्र/७०४/११४१/२२ क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादिचतु
गुणस्थानमनुष्याणा असयतदेशसंयतोपचारमहाव्रतमानुषीणां च कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टीनामेव । =क्षायिक सम्यग्दर्शन, कर्मभूमिज वेदक सम्यग्दृष्टि असंयतादि चार गुणस्थानवी मनुष्योंको तथा असंयत और देशसंयत और उपचारसे महाव्रतधारी मनुष्यणीको
ही होता है। दे० बेद/५-(कर्मभूमिज मनुष्य और मनुष्यनीमें तोनों वेद सम्भव
है। परं भोगभूमिज मनुष्योमें केवल स्त्री व पुरुष ये दो ही वेद सम्भव है।) दे. मनुष्य/३/१, २ (पहले व दूसरे गुणस्थानमें मनुष्य व मनुष्यणी दोनो ही पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो प्रकारके होते है, पर चौथे गुणस्थानमें मनुष्य तो पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो होते है और मनुष्यणी केवल पर्याप्त ही होती है।५-६ गुणस्थान तक दोनो पर्याप्त ही होते है। दे० वेद/६/९/गो जी. ( योनिमति मनुष्य पाँचवे गुणस्थानसे ऊपर
नही जाता।) दे० आहारक/४/३ ( मनुष्यणी अर्थात् द्रव्य पुरुष भाव स्त्रीके आहारक व आहारक मिश्र काय योग नहीं होते है, क्योकि अप्रशस्त वेदीमें उनकी उत्पत्ति नहीं होती।) ५. उपरोक्त शब्दोंके सैद्धान्तिक अर्थ । वेद मार्गणा में सर्वत्र स्त्री आदि वेदी कहकर निरूपण किया गया है (शीर्षक नं.१)। तहाँ सर्वत्र भाव वेद ग्रहण करना चाहिए (दे० बेद/२/१)। गति मागणामें तिर्यंच, तिर्यंचनी और योनिमतो तिर्यंच इन शब्दोका तथा मनुष्य व मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य इन शब्दोका प्रयोग उपलब्ध होता है। तहाँ तिर्यच' व 'मनुष्य' तो जैसा कि अगले सन्दर्भ में स्पष्ट बताया गया है भाव पुरुष व नपुंसक लिंगीके लिए प्रयुक्त होते है। तिचिनी व मनष्यणी शब्द जैसा कि प्रयोगोंपरसे इष्ट है द्रव्य पुरुष भाव स्त्रीके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-७४
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