Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 623
________________ व्यतिकर ६१२ व्यभिचार न्या. वि ./१/३४/२५७/१४ अनभिव्यक्ति अप्रतिपत्ति ।- अप्रतिपत्ति अर्थात वस्तुके स्वरूपका ज्ञान न होना अनभिव्यक्ति है । व्यतिकरस्या मं/२४/२१२/११ येन स्वभावेन सामान्य तेन विशेष', येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकर । पदार्थ, जिस स्वभावसे सामान्य है उसी स्वभावसे विशेष है और जिस स्वभावसे बिशेष है उसीसे सामान्य है अनेकान्तवादमें यह बात दर्शाकर नैयायिक लोग इस सिद्वान्तमें व्यतिकर दोष उठाते है। स. भ त./८२/८ परस्परविषयगमन व्यतिक्र । == जिस अवच्छेदक स्वभावसे अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यो न बन बैठे और जिस स्वभावसे नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाय । इस प्रकार परस्परमें व्यवस्थापक धर्मोंका विषयगमन करनेमे अनेकान्त पक्षमें व्यतिकर दोष आता है, ऐसा नैयायिक कहते है। व्यतिक्रम-सामायिक पाठ । अमितगति/ह व्यतिक्रम शीलवतेवि लड्धनम् । -शील व्रतोंका उल्लंघन करना व्यतिक्रम है। व्यतिरेकरा वा./४/४२/११/२५२/१६ अथ के व्यतिरेका । वाग्विज्ञानव्यावृत्तिलिङ्गसमधिगम्यपरस्परविलक्षणा उत्पत्तिस्थितिविपरिणामवृद्धिक्षयविनाशधर्माण गतीन्द्रियकाययोगवेदक्षायज्ञानस यमदर्शनलेश्यासम्यक्त्वादय । -व्यावृत्ताकार अर्थात भेद द्योतक बुद्धि और शब्दप्रयोगके विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, विपरिणाम, वृद्धि, ह्रास, क्षय, बिनाश, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, सयम. लेश्या, सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म है। प मु/४/९ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो ब्यतिरेको गोमहिषादिवत् । -भिन्न-भिन्न पदार्थोमे रहनेवाले विलक्षण परिणामको व्यतिरेक विशेष कहते है, जैसे गौ और भेस । दे० अन्वय-(अन्वय ष व्यतिरेक शब्दसे सर्वत्र विधि निषेध जाना जाता है।) २. व्यतिरेकके भेद पं.ध./पू /भाषाकार/१४६ द्रव्यक्षेत्र काल व भावसे व्यतिरेक चार प्रकारका होता है। विशेष दे० सप्तभंगी। ३. व्यके धर्मों या गुणों में परस्पर व्यतिरेक नहीं है पं.ध./पू /श्लो ननु च व्य तिरेकत्व भवतु गुणाना सदन्वयत्वेऽपि । तद- नेकत्वप्रसिद्धौ भावव्यतिरेक्त सतामिति चेत् ।१४५॥ तन्न यतोऽस्ति विशेषो व्यतिरेकस्यान्वयस्य चापि यथा । व्यतिरेकिणो ह्यनेकेऽप्येक स्यादन्वयी गुणो नियमाद ।१४६। भवति गुणांश कश्चित् स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्य । सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक 1१५० तल्लक्षणं यथा स्याज्ज्ञानं जीवो य एष ताश्चि । जीवो दर्शनमिति वा तदभिज्ञानात एव तावाश्च ॥१५॥ प्रश्न-स्वत सत् रूप गुणो में सत् सत् यह अन्वय बराबर रहते हुए भी, उनमें परस्पर अनेक्ताकी प्रसिद्धि होनेपर उनमे भावव्यतिरेक हेतुक व्यतिरेकत्व होना चाहिए ?।१४। उत्तर-यह कथन ठीक नही है, क्योंकि अन्वयका और व्यतिरेकका परस्परमें भेद है। जैसे-नियमसे व्यतिरेकी अनेक होते है और अन्वयी गुण एक होता है ।१४६। [भाव व्यतिरेक भी गुणों में परस्पर नहीं होता है, बल्कि ] जो कोई एक गुणका अविभागी प्रतिच्छेद है, बह वह ही होता है, अन्य नही हो सकता, और वह दूसरा भी वह पहिला नहीं हो सकता, किन्तु जो उससे भिन्न है वह उससे भिन्न हो रहता है ।१५०। उसका लक्षण और गुणोमे भावव्यतिरेकका अभाव इस प्रकार है, जैसे कि जो ही और जितना ही जीव ज्ञान है वही तथा उतना ही जीव एकत्व प्रत्यभिज्ञान प्रमाणसे दर्शन भी है ।१५॥ * पर्याय व्यतिरेकी होती है -दे पर्याया। * अन्वय व्यतिरेकमें साध्यमाधक माव -दे मप्तभगी। व्यतिरेक व्यास अनुमान-दे अनुमान । व्यतिरेको दृष्टांत-दे. दृष्टात । व्यतिरेकी हेतु-दे हेतु। व्यधिकरण-किसी एक धीमे एक धर्म रहता है और अन्य कोई धम नही रहता। तब वह अभावभूत धर्म उस पहले धर्मका व्यधि करण कहलाता है। जेसे पटत्व धर्म घटत्वका व्यधिकरण है। व्यभिचाररा वा/१/१२/१४५३/५ अतस्मिस्तदिति ज्ञान व्यभिचार' 1 = अतत्को तद रूपसे ग्रहण करना व्यभिचार है। २. व्यभिचारी हेत्वाभास सामान्यका लक्षण प.मु /६/३० विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरने कान्तिक' १३० =जो हेतु पक्ष, विपक्ष व सपक्ष तीनोमे रहे उसे अनै कान्तिक कहते है। न्या दी /३/६४०/८६/११ सव्यभिचारोऽकान्तिक (न्या, सूम। १/२/५) यथा-'अनित्य शब्द प्रमेयत्वात' इति । प्रमेयत्वं हि हेतु साध्यभूतमनित्यत्व व्यभिचरति, गगनादौ विपक्षे नित्यत्वेनापि सह वृत्ते । ततो विपक्षाव्यावृत्त्यभावादनै कान्तिक । पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनै कान्तिक। -जो हेतु व्यभिचारी हो सो अनै कान्तिक है। जैसे-'शब्द अनित्य है, क्योकि वह प्रमेय है', यहाँ 'प्रमेयत्व' हेतु अपने साध्य अनित्यत्वका व्यभिचारी है। कारण, आकाशादि विपक्षमे नित्यन्बके साथ भी वह रहता है । अत विपक्षसे व्यावृत्ति न होनेसे अनेकान्तिक हेत्वाभास है।४०। जो पक्ष, सपक्ष और विपक्षमे रहता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है।६२। ३. व्यभिचारी हेत्वामासके भेद न्या दो./३/९६३/१०१ स द्विविध -निश्चितविपक्षवृत्तिक' शङ्कितविपक्षवृत्तिकश्च । - बह दो प्रकारका है-निश्चित विपक्षवृत्ति और शकित विपक्षवृत्ति। ४. निश्चित व शंकित विपक्ष वृत्तिके लक्षण प.मु /६/३१-३४ निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्य शब्द प्रमेयत्वात् घटक्व ॥३१॥ आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ।३२३ शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात ।३३। सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात ३४। - जो हेतु विपक्षमें निश्चित रूपसे रहे उसे निश्चित विपक्षवृत्ति अनै कान्तिक कहते है। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योकि प्रमेय है जैसे घडा ।३१-३२॥ जो हेतु विपक्षमें सशयरूपसे रहे उसे शकितवृत्ति अनेकान्तिक कहते है। जैसे-सर्वज्ञ नही है, क्योकि, वक्ता है। न्या दी./६/६२/१०१ तत्राद्यो यथा धूमवानय प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्र अग्निमत्त्व पक्षीकृते सदिह्यमानधूमे पुरोवत्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते, विपक्षे धूमरहितत्वेन निश्चितेऽड्गारावस्थापन्नाग्निमतिप्रदेशे वर्तते इति निश्चयान्निश्चितविपक्षवृत्तिक । द्वितीयो यथा, गर्भस्थो मैत्रीतनय' श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्व हेतु पक्षीकृते गर्भस्थे वर्तते, सपले इतरतत्पुत्रे वर्तते, विपक्षे अश्यामे वर्तेतापीति शङ्काया अनिवृत्ते शङ्कितविपक्षवृत्तिक । अपरमपि शङ्कित विपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्, अर्हत्सर्वज्ञो ने भवितुमर्ह ति वक्तृत्वात रथ्यापुरुषवदिति । वक्तृत्वस्य हि हेतो पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथावृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्ति सभाव्येत, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न बतते। नच जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639