Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 634
________________ व्रत ६२७ ३. महाव्रत व अणुव्रत निर्देश सा ध./४/५ विरति स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमते । क्वचिदपरेऽप्यननुमते पञ्चाहिसाद्यणुवतानि स्यु 11 - स्थूल वध आदि पॉचो स्थूल पापोका मन वचन कायसे तथा कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करना अणुवत है। प. ध /उ /७२०-७२१ तत्र हिसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् । देशतो 'विरति प्रोक्त गृहस्थानामगुब्रतम् १७२०। सर्वतो विरतिस्तेषा हिंसादीना ब्रत महत् । नैतत्सागारिभि कतुं शक्यते लिङ्गमर्हताम् ॥७२॥ = सागार व अनागार दोनो प्रकारके धर्मो मे हिसा झूठ चोरी कुशील और सम्पूर्ण परिग्रहसे एक देश विरक्त होना गृहस्थोका अणुवत कहा गया है ।७२०। उन्ही हिंसादिक पाँच पापोका सर्वदेशसे त्याग करना महावत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिग गृहस्थोके द्वारा नही पाला जा सकता ।७२१ । १. कथंचित् श्रावकों के लिए भी भानेका निर्देश ला. सं.//१८४-१८६ सर्वसागारधर्मेषु देशशब्दोऽनुवर्तते । तेनान-. गारयोग्याया कर्तव्यास्ता अपि क्रिया. १८४। यथा समितय' पञ्च सन्ति तिस्त्रश्च गुप्तय । अहिसावतरक्षार्थ कर्तव्या देशतोऽपि त. १८॥ न चाशड्क्यमिमा. पञ्च भावना मुनिगोचरा' । न पुनर्भावनीयास्ता देशतोव्रतधारिभि ।१८७। यतोऽत्र देशशब्दो हि सामान्यादनुवर्तते । ततोऽणुवतसज्ञेषु व्रतत्वान्नाव्यापको भवेत् ।१८८) अलं विकल्पसकल्पै कर्तव्या भावना इमा । अहिसावतरक्षार्थ देशतोऽणुवतादिवत १८४ा माल गृहस्थोके धर्म के साथ देश शब्द लगा हुआ है, इसलिए मुनियोके योग्य कर्तव्य भी एक देशरूपसे उसे करने चाहिए ।१८४। जैसे कि अहिसावतकी रक्षाके लिए श्रावकको भो साधुकी भॉति समिति और गुप्तिका पालन करना चाहिए ।१८। यहाँपर यह शका करनी योग्य नहीं कि अहिसावतकी 'समिति, गुप्ति आदि रूप' ये पाँच भावनाएँ तो मुनियोका कर्तव्य है, इसलिए देशवतियोको नही करनी चाहिए ।१८७। क्योकि यहाँ देश शब्द सामान्य रीतिसे चला आ रहा है जिससे कि यह बतोकी भॉति समिति गुप्ति आदिमे भी एक देश रूपसे व्यापकर रहता है ।१८८। अधिक कहनेसे क्या, श्रावकको भी अहिंसाव्रतकी रक्षाके लिए ये भावनाएं अणुव्रतको तरह ही अवश्य करनी योग्य है ।१८। -(और भी दे० अगला शीर्षक ) । ५. व्रतोंके अतिचार छोड़ने योग्य हैं सा. ध/४/१५ मुञ्चन् बन्धं बधच्छेदमतिभाराधिरोपणं । भुक्तिरोध च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत् ॥१॥ =दुर्भावसे किये गये बध बन्धन आदि अहिसा बतके पाँच अतिचारोको छोडकर श्रावकोको उसकी पाँच भावनाओरूप समिति गुप्ति आदिका भी पालन करना चाहिए। बत-विधान संग्रह पृ २१ पर उधृत-"वतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोनं सातिचाराणि निषेवितानि। शस्यानि किं वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि : =जीवको ब्रत पुण्यके कारण से होते है, इसलिए उन्हे अतिचार सहित नही पालना चाहिए, क्या लोकमें कहीं मल लिप्त धान्य भी फल देते है। दे० व्रत/१/७,८ ( किसी प्रकार भी व्रत भग करना योग्य नहीं। परिस्थिति वश भग हो जाने अथवा दोष लग जानेपर तुरत प्रायश्चित्त लेकर उसकी स्थापना करनी चाहिए।) २. स्थूल व सूक्ष्म व्रतका तात्पर्य सा. ध /४/६ स्थूल हिसाद्याश्रयत्वात्स्थूलानामपि दुई शा। तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वाद्ववादि स्थूलमिष्यते।६। = हिसा आदिके स्थूल आश्रयोके आधारपर होनेवाले, अथवा साधारण मिथ्यादृष्टि लोगोमें प्रसिद्ध, अथवा स्थूलरूपसे किये जानेवाले हिसादि स्थूल कहलाते है । अर्थात् लोक प्रसिद्ध हिसादिको स्थूल कहते है, उनका त्याग ही स्थूल बत है। -विशेष दे० शीर्षक न.६। दे, श्रावक/४/२ [मद्य मांस आदि त्याग रूप अष्ट मूल गुणोमें व सप्त व्यसनोमें ही पाक्षिक श्रावकके स्थूल अणुव्रत गभित है।] ३. महावत व अणुव्रतोंके पाँच भेद भ आ./मू /२०८०/१७६६ पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहि । अपरिमिदिच्छादो वि य अणुव्वयाइ विरमणा -प्राण वध, असत्य, चोरी, परस्त्री सेवन, परिग्रहमें अमर्यादित इच्छा, इन पापोंसे विरक्त होना अणुव्रत है ।२०८०। चा पा./मू /३० हिसाविरइ अहिसा असच्चविरई अदत्तविरई य । तुरियं अब भविरई पचम संगम्मि विरई य। -हिसासे विरति सो अहिसा और इसी प्रकार असत्य विरति, अदत्तविरति, अब्रह्मविरति और पाँचवी परिग्रह विरति है।३०॥ मू. आ./४ हिसाविरदी सच्च अदत्तपरिवज्जण च अभं च । सगविमुत्ती य तहा महव्वया पच पण्णत्ता ।४। =हिसाका त्याग, सत्य, चोरीका त्याग, ब्रह्मचर्य, और परिग्रहत्याग ये पाँच महावत कहे गये है।४। दे. शीर्षक नं १-[अणुव्रत व महावत दोनो ही हिसादि पाँचों पापोके त्यागरूपसे लक्षित है। ४. रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है स. सि./७/१/३४३/११ ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम् । न, भावनास्वन्तर्भावात् । अहिसावतभावना हि वक्ष्यन्ते । तत्रालोकितपानभोजनभावना' कायति। -प्रश्नरात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है, उसकी यहाँ परिगणना करनी थी। उत्तर-नहीं, क्योकि, उसका भावनाओं में अन्तर्भाव हो जाता है। आगे अहिंसावतकी भावनाएँ कहेगे। उनमें एक आलोकित पान-भोजन नामको भावना है, उसमे उसका अन्तर्भाव होता है। (रा वा/७/१/१२/५३४/२८)। पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पाठ में प्रतिक्रमणभक्ति-'आधावरे छठे अणुव्वदे सब भते ! राईभोयणं पच्चक्खामि । - छठे अणुव्रत-रात्रिभोजनका प्रत्याख्यान करता हूँ। चा सा/१३/३ पचधाणुवतं राज्यभुक्ति. पष्ठमणुव्रतं । पाँच प्रकारका अणुव्रत है ओर रात्रिभोजन त्याग' यह छठा अणुव्रत है। ३. महाव्रत व अणुव्रत निर्देश १. महाव्रत व अणुवतके लक्षण चा. पा./मू (२४ थूले तसायबहे थूले मोषे अदत्त थूले य। परिहारो परमहिला परिगहार भपरिमाण ।२४। -स्थूल हिसा मृषा व अदत्तग्रहण का त्याग, पर-स्त्री तथा बहुत आरम्भ परिग्रहका परि माण ये पाँच अणुव्रत है ।२४। ( वसु श्रा/२०८) । त. सू./७/२ देशतर्वतोऽगुमहती ।२। - हिसादिकसे एक देश निवृत्त होना अणु-वत और सब प्रकारसे निवृत्त होना महाव्रत है। र क. श्रा/५२, ७२ प्राणातिपात वितथव्याहारस्तेयकाममूच्छेभ्य, । स्थूलेभ्य पापेभ्यो व्युपरमणमणुवतं भवति ॥५२॥ पञ्चाना णपाना हिसादीनां मनोवच काये ।- कृतकारितानुमोदै स्त्यागस्तु महावत महतो ।७२। = हिसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील ) और मूळ अर्थात परिग्रह इन पाँच स्थूल पापोसे विरक्त होना अणुव्रत है ।५२। हिंसादिक पाँचों पापोंका मन, बचन काय व कृतकारित अनुमोदनासे त्याग करना महापुरुषोका महावत है ।५३। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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