Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 635
________________ ६२८ व्रत प्रतिम तथे वासश्यबचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृक्तिरस्ति । तथैव चादत्तादानपरिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरम्तीत्येकदेश प्रवृत्त्यपेक्षया देश बतानि तेषामेर देशवताना त्रिगुप्तिलक्षण निविकापसमाधिकार त्याग । -प्रश्न-प्रसिद्ध अहिसादि महाव्रत एकदेशरूप से ह गये । उत्तर-अहिसा, मत्य और अचौर्य महावतामे यद्यपि जीव घातकी, असत्य बोलनेकी तथा अदत्त ग्रहणकी निवृत्ति है, परन्त जीवरक्षाकी, सत्य बोलने और दत्तग्रहणकी प्रवृत्ति है। इस एकदेश प्रवृत्तिको अपेक्षा ये एक देशवत है। त्रिगुप्तिलक्षण निविकल्प समाधि कालमे इन एक देशबतोका भी त्याग हा जाता है [ अर्थात् उनक विकल्प नही रहता। -दे० चारित्र/७/१०] [प. प्र/टी./२/५२ १७३/७), (दे० सवर/२/३)। दे० धर्म/३/२ [ बत व अवतसे अतीत तीसरी भूमिका ही यथार्थ वर ५ अणुवतीको स्थावर घात आदिकी भी अनुमति नही है क पा. १/११/गा ५५/१०५ सजदधम्मकहा बिय उवासमाण सदार संतोसो। तसत्रह विरईसिवरवा थावर घादो त्ति णाणुमदो ५५ - सयतधर्मको जो कथा है उसमे श्रावको को ( केवल ) स्वदारसतोष और त्रसबध पिरतिकी शिक्षा दी गयी है । पर इससे उन्हे स्थावर घातकी अनुमति नहीं दी गयी है। सा घ,/४/११ यन्मुक्त्यमहिसैव तन्मुमुक्षुरुपासक । एकाक्षवध मप्युज्झा स्थानावगंभोगकृत ।११। = जो अहिसा ही मोक्षका साधन है उसका मुमुक्षु जनोको अवश्य सेवन करना चाहिए । भौगोपभोगमें होनेवाली एकेन्द्रिय जीवो की हिसाको छोडकर अर्थात् उससे बचे शेष एकेन्द्रिय जीवोकी हिसाका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए। १. महाव्रतको महाव्रत व्यपदेशका कारण भ,आ./म /११८४/११७० साधे ति जंमहत्य आयरिइदा च ज महल्लेहि। ज च महल्लाइ सय महव्वदाइ हवे ताइ ।११८४1- महान् मोक्षरूप अर्थकी सिद्धिं करते है।महान तीर्थंकरादि पुरुषोने इनका पालन किया है. सब पापयोगोका त्याग होनेसे स्वत महान् है, पूज्य है, इसलिए इनका नाम महावत है ।११८४। (मू आ /२६४), (चा पा /म् /३१)। ७. अणुव्रतको अणुव्रत व्यपदेशका कारण स सि /७/२०/३५८/६ अणुशब्दोऽल्पवचन । अणूनि घतान्यस्य अणुव्रतोऽगारीत्युच्यते । कथमस्य व्रतानामणुरवम्। सर्वसावानिवृत्त्यसभवात्। कुतस्तह्यसौ निवृत्त । त्रसप्राणिव्यपरोपरोपणानिवृत्त अगारीत्याद्यमणुवतम् । स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्राम विनाशे बा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनानिवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । अन्यपीडाकर पार्थिवभयादिवशाद वश्य परित्यक्तमपि पददत्त तत प्रतिनिवृत्तादर श्रावक इति तृतीयमणुवतम् । उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया सङ्गानिवृत्तरतिगृहीति चतुर्थमणुवतम् । धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात कृतपरिच्छेदो गृहीति पचममणुबतम् । - अणु शब्द अल्पवाची है। जिसके व्रत अणु अर्थात अल्प है, वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है। प्रश्न-अगारीके व्रत अल्प केसे है। उत्तर अगारीके पूरे हिसादि दोषोका त्याग सम्भव नही है, इसलिए उसके व्रत अल्प है। प्रश्न-तो यह किसका त्यागी है । उत्तर-यह त्रसजीवोकी हिसाका त्यागी है, इसलिए इसके पहिला अहिसा अणुव्रत होता है। गृहस्थ स्नेह और मोहादिके वशसे गृहविनाश और ग्रामविनाशके कारण असत्य वचनसे निवृत्त है इसलिए उसके दूसरा सत्याणुव्रत होता है। श्रावक राजाके भय आदिके कारण दूसरेको पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तुको लेनेसे उसकी प्रीति घट जाती है, इसीलिए उसके तीसरा अचौर्याणवत होता है । गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार को हुई परस्त्रीका सग करनेसे रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नामका चौथा अणुवत होता है। तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदिका स्वेच्छासे परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवा परिग्रहपरिमाण अणुवत होता है । (रा. वा /७/२०/-1५४७/४ )। ८. अणुव्रतमें कथचित् महानतपना दे. दिग्बत, देशव्रत-[की हुई मर्यादासे बाहर पूर्ण त्याग होनेसे श्रावक- के अणुव्रत भी महाव्रतपनेको प्राप्त होते है।' वे. सामायिक/३ [ सामायिक कालमे श्रावक साधु तुल्य है।] ९. महाव्रतमें कथंचित् देशवतपना इ.सं./टी./१०/२३०/४ प्रसिद्धमहावतानि कथमेकदेशरूपाणि, जातानि । इति चेदुच्यते-जीवघातनिवृत्ती सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति। १०. अणु व महाव्रतोंके फलों में अन्तर चा, सा /६/६ सम्यग्दर्शनमणुव्रतयुक्त स्वर्गाय महाव्रतयुक्त मोक्षाय च । - अणुबत युक्त सम्यग्दर्शन स्वर्गका और महाबत युक्त मोक्षक कारण है। व्रतचर्या क्रिया-दे, सस्कार/२ । व्रत प्रतिमार.क श्रा/१३८ निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्च कमपि शील सप्तकं चापि । धारयते नि शल्यो योऽसौ वतिना मतो बतिक ११३८। जो शल्य रहित होता हुआ अतिचार रहित पाँचो अणुबतोको तथा शील सप्तक अर्थात तीन गुणवतो और चार शिक्षाबतोको भी धारण करता है, ऐसा पुरुष व्रतप्रतिमाका धारी माना गया है। (व. श्रा/२०७ ), (का. आ./मू/३३०), (द्र, स/टी/४/१६५/४)। सा ध/४/१-६४ का भावार्थ-पूर्ण सम्यग्दर्शन व मूल गुणो सहित निरतिचार उत्तर गुणोको धारण करनेवाला बतिक श्रावक है ।। तहाँ अहिसाणुव्रत गौ आदिका वाणिज्य छोडे। यह न हो सके तो उनका बन्धनादि न करे। यह भी सम्भव न हो तो निर्दयतासे बन्धन आदि न करे ।१६। कषायवश कदाचित अतिचार लगते है ।१७। रात्रि भोजनका पूर्ण त्याग करता है ।२७१ अन्तराय टालकर भोजन करता है ।३०। भोजनके समय ।३४॥ व अन्य आवश्यक क्रियाओके समय मौन रखता है ।३८। सत्याणुव्रत-झूठ नहीं बोलता. झूठी गवाही नही देता, धरोहर सम्बन्धी झूठ नहीं बोलता परन्तु स्वपर आपदाके समय झूठ बोलता है।३९। सत्यसत्य, असत्यसत्य, सत्यासत्य तो बोलता है पर असत्यासत्य नही बोलता।४० सावद्य वचन व पाँचो अतिचारोका त्याग करता है ।४। अचौर्याणुव्रत कहीपर भी गडा हुआ या पड़ा हुआ धन आदि अदत्त ग्रहण नहीं करता ।४८। अपने धनमें भी सशय हो जानेपर उसे ग्रहण नहीं करता ।४६॥ अतिचारोंका स्याग करता है ।१०। ब्रह्मचर्याणुव्रत--स्वदारके अतिरिक्त अन्य सब स्त्रियोका त्याग करता है ।५१-५२। इस व्रतके पाँचो अतिचारोका त्याग करता है।८। परिग्रहपरिमाणवत--एक घर या खेतके साथ अन्य घर या खेत जोडकर उन्हे एक गिनना, एक गाय रखनेके लिए गर्भवती रखना, अपना अधिक धन सम्बन्धियोको दे देना इत्यादि क्रियाओका त्याग करता है ।६।। सा. ध./५/१५.२३ भोगोपभोग परिमाण व्रतके अन्तर्गत सर्व अभक्ष्यका त्याग करता है ।१५-१६। १५ प्रकारके खर कर्मोका त्याग करता है ।२१-२३॥ सा.ध./६/१८-२६ अनवद्य व्यापार करे ।१८। उद्यानमें भोजन करना, पुष्प तोडना आदिका त्याग करे ।२०। अनेक प्रकारके पूजन विधान आदि करे।२३। दान देनेके पश्चात स्वय भोजन करे ।२४। आगम चर्चा करे ।२६। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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