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व्रत शुद्धि
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व्रती
*बत व अन्य प्रतिमाओंमें अन्तर
-दे. वह वह नाम। व्रत शुद्धि-दे. शुद्धि। वतारोपण योग्यता-दे. व्रत/१/५ । व्रतावरण क्रिया-दे. सस्कार /२ । व्रतीस. सि./६/१२/३३०/११ व्रतान्यहिसादीनि वक्ष्यन्ते, तद्वन्तो बतिन ।
--अहिंसादिक बतोका वर्णन आगे रेगे। ( कोशमें उनका वर्णन व्रतके विषयमें किया जा चुका है)। जो उन व्रतोसे युक्त है वे व्रती कहलाते है । (रा. वा./६/१२/२४५२२/१४ ) ।
२. व्रतीके भेद व उनके लक्षण त. सू./9/१६ अगार्यनगारश्च ।१३। उस ब्रतीके अगारी और अनगारी
ये दो भेद है। स. सि /६/१२/३३०/१२ ते द्विविधा । अगार प्रति निवृत्तीत्सुक्या संयता' गृहिणश्च संयतासयता' । -वे व्रती दो प्रकारके है-पहले वे जो घरसे निवृत्त होकर संयत हो गये है। और दूसरे गृहस्थ
संयतासंयत । (रा. वा६/१२/२/५२२/५१)! त. सा./४/७१ अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते। महायता
नगार स्यादगारी स्यादणुवत ७१। वे व्रती अनगार और अगारीके भेदसे दो प्रकारके है। महाबतधारियोको अनगार और अणुप्रतियोको अगारी कहते है। (विशेष दे. बह वह नाम अथवा साधु व श्रावक) २. व्रती निःशल्य ही होता है भ आ./मू /१२१४/१२१३ णिस्सलेलसेव पृणो महब्बदाइ सव्वाई। बदमुवहम्मदि तोहि दुणिदाणमिच्छत्तमायाहि ।१२१४। -शल्य रहित यतिके सम्पूर्ण महावतो का सरक्षण होता है। परन्तु जिन्होने शल्योका आश्रय लिया है, उनके बत माया मिथ्या व निदान इन तीनसे नष्ट हो जाते है।
त सू./७/१८ नि शल्यो व्रती।१८। -जो शल्य रहित है वह व्रती
है। (चा, सा./७/१)। स. सि 19/१८/३५६18 अत्र चोद्यते-शल्याभावान्नि शल्यो बताभिसबन्धाद वती, न निश्शल्यत्वाद वती भवितुमर्हति । महिदेवदत्तो दण्डसम्बन्धाच्छत्री भवतीति । अत्रोच्यते-उभयविशेषण-- विशिष्टस्येष्टत्वात् । न हिसाधु पर तिमात्रव्रताभिसबन्धाद् व्रती भवत्यन्तरेण शल्याभावम् । सति शल्यापगमे व्रतसंबधाइ व्रती विवक्षितो यथा बहुक्षीरघृतो गोमानि ति व्यपदिश्यते । बहु क्षीरघृताभावारसतीष्वपि गोषु न गोमास्तथा सशल्यत्वात्सरस्वपि व्रतेषु न व्रती। यस्तु नि शल्य' स व्रती। = प्रश्न-शल्य न होनेसे नि शल्य होता है और व्रतोके धारण करनेसे व्रती होता है । शल्यरहित होनेसे बती नहीं हो सकता। जैसे-देवदत्तके हाथमें लाठी होनेसे वह छत्री नही हो सक्ता ? उत्तर-वती होनेके लिए दोनो विशेषणोमें युक्त होना आवश्यक है। यदि किसीने शन्योका त्याग नहीं किया
और केवल हिसादि दोषोको छोड दिया है तो वह व्रती नहीं हो सक्ता। यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्योका त्याग करके व्रतोको स्वीकार किया है । जै से जिसके यहाँ बहुत घी दूध होता है, वह गाय वाला कहा जाता है। यदि उसके घी दूध नहीं होता और गायें है तो वह गायवाला नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो सशल्य है, व्रतोके होने पर भी वह व्रती नही हो सकता। किन्तु जो नि शल्य है वह व्रती है । (रा. वा./७/१८/५-७/५४६/४ )। ज्ञा /१६/६३ व्रती नि शल्य एव स्यात्सशल्यो बतघातकः...६३ =व्रती तो निशक्य ही होता है। सशक्य व्रतका घातक होता है। (भ, आ /वि /११६/२७७/१३) । अ ग. श्रा/७/१६ यस्यास्ति शक्य हृदये त्रिधेयं, प्रतानि नश्यन्त्यखिलानि तस्य। स्थिते शरीरं ह्यबगाह्य काण्डे, जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ।१३। जिसके हृदयमें तीन प्रकारकी यह शल्य है उसके समस्त ब्रत नाशको प्राप्त होते हैं । जैसे-मनुष्य के शरीरमें बाण घुसा हो तो उसे सुख कैसे हो सकता है ।११। * सब व्रतोंको एक देश धारनेसे व्रती होता है मात्र एक या दोसे नहीं-दे. श्रावक/३/६ ।
इति तृतीयः खण्डः
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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