Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 638
________________ [परिशिष्ट] भाव जिस प्रकार अमितगति कृत पंचसंग्रह पर दिखाई देता है उस प्रकार इस पर दिखाई नहीं देता है। इस पर से यह अनुमान होता है कि गोमट्टसार की रचना डड्ढा कृत पंचस ग्रह के पश्चात हुई है। (जै /१/३७२-३७५)। पंचसंग्रह-इस नाम के चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है,-दो प्राकृत गाथाबद्ध हैं और दो संस्कृत श्लोकबद्ध । प्राकृत वालो मे एक दिगम्बरीय है और एक श्वेताम्बरीय । ३२५ । इन दोनों पर ही अनेको टीकायें हैं। संस्कृत वाले दोनों दिगम्बरीय प्राकृत के रूपान्तर मात्र होने से । ।३२६। दिगम्बरीय हैं। पांच पांच अधिकारो में विभक्त होने से तथा कमेस्तव आदि आगम प्राभृतों का संग्रह होने से इनका पंचसंग्रह' नाम सार्थक है । ३४३ । गोमट्टसार आदि कुछ अन्य ग्रन्थ भी इस नाम से अपना उल्लेख करने में गौरव का अनुभव करते है। इन सबका क्रम से परिचय दिया जाता है। १. दिगम्बरीय प्राकत पंचसंग्रह-सबसे अधिक प्राचीन है। इसके पांच अधिकारों के नाम है-जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका। षट् खण्डागमका और कषायपाहुडका अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणा स्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व का विवेचन करते है । ३४३ । इसमें कुल १३२४ गाथायें तथा ५०० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। समय-इसके रचयिताका नाम तथा समय ज्ञात नहीं है । तथापि अकलंक भट्ट (ई.६२०-६८०) कृत राजबार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि. शं.८ से पूर्व ही अनुमान किया जाता है।३५१ । (जै १/पृष्ठ) । डा. A.N.Up. ने इसे वि श १.८ में स्थापित किया है । (पं. स./प्र.३४)। ५-६ पंचसंग्रह की टीकायें-५ दिगम्बरीय पचसंग्रह पर हो टोकाये उपलब्ध है। एक वि.१५२६ की है जिसका रचयिता अज्ञात है। दूसरी वि. १६२० की है । इसके रचयिता भट्टारक सुमतिकीति है । ४४८ । परन्तु भ्रान्तिवश इसे मुनि पद्मनन्दि की मान लिया गया है। वास्तव में ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख ग्रन्थकार के प्रति नहीं, प्रत्युत उस प्रकरण के रचयिता की ओर संकेत करता है जिसे ग्रन्थकर्ता भट्टारक सुमतिकीर्ति ने पद्मनन्दि कृत 'जलदीव पणति' से लेकर ग्रन्थ के 'शतक' नामक अन्तिम अधिकार में ज्यों का त्यो आत्मसात कर लिया है । ४४६। पंचसंग्रह के आधार पर लिखी गयी होने से भले इमे टीका कहो, परन्तु विविध ग्रन्थों से उद्धृत गाथाओ तथा प्रकरणों की बहुलता होने से यह टीका तो नाममात्र ही है । ४४८ । लेखक ने स्वयं टीका न कहकर 'आराधना' नाम दिया है । ४४५। चूर्णियों की शैली में लिखित इसमें ५४६ गाथा प्रमाण तो पद्यभाग है और ४००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। (जै./९/पृष्ठ संख्या), (ती/३/३७६)। ६. इन्हीं भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा रचित एक अन्य भी पचसंग्रह वृत्ति प्राप्त है। यह वास्तव में अकेले सुमतिकीर्ति की न होकर इनकी तथा ज्ञानभूषण की साझली है । वास्तव में पंचसंग्रह की न होकर गोमट्टसार को टीका है. क्योंकि इसका मूल आधार 'पचसंग्रह' नहीं है. मलिक गोमट्टसार की 'जीवप्रबोधिनी' टीका के आधार पर लिखित 'कम प्रकृति' नामक ग्रन्थ है। ग्रन्धकार ने इसे 'लघुगोमट्टसार अपर नाम - संग्रह' कहा है । समय-वि. १६२० । (जै /१/४७१-४८०)। २. श्वेताम्बरीय प्राकत पचसंग्रह-श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथाबद्ध यह ग्रन्थ भी दिगम्बरीय की भांति । अधिकारों में विभक्त है। उनके नाम तथा विषय भी लगभग वही हैं । गाथा संख्या १००५ है । इसके रचयिता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं, जिन्होंने इस पर स्वयं ८००० श्लोक प्रमाण 'स्वोपज्ञ' टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त आ.मलयगिरि (वि.श.१२)कृत एक संस्कृत टीका' भी उपलब्ध है। मूल ग्रन्ध को आचार्य ने महान या यथार्थ कहा है । ३५१ । समय-चन्द्रर्षि महत्तर का काल वि. श. १० का अन्तिम चरण निर्धारित किया गया है । ३६६ । (दे. चन्द्रर्षि), (जै /१/३५१ ३६६)। __ अन्यान्य पंचसंग्रह-इनके अतिरिक्त भीपंचसग्रह नामक कई ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे 'गोमट्टसार' के रचयिता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उसे 'पंचसंग्रह' कहा है श्रीहरि दामोदर वेल कर ने अपने जिनरत्न कोश में 'पचसग्रह दीपक' नाम के किसी ग्रन्थ का उल्लेख किया है. जो कि इनके अनुसार गोमट्टसार का इन्द्र वामदेव द्वारा रचित सस्कृत पद्यानुवाद है। पांच अधिकारों में विभक्त इसमें १४६८ पद्य हैं। ( सं./प्र. १४ A.N. Up.). ३-४. संस्कत पंचसंग्रह-दो उपलब्ध हैं। दोनों ही दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रह के संस्कृत रूपान्तर मात्र है। इनमें से एक चित्रकूट (चित्तौड) निवासी श्रीपाल मत डड्ढा की रचना है और दूसरा आ अमित गति की। पहले में १२४३ और दूसरे में ७०० अनुष्टुप पध हैं, और साथ साथ क्रमशः १४५६ और १००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। समय-आ अमितगति वाले की रचना वि. स. १०७३ में होनी निश्चित है । डड्ढा वाले का रचनाकाल निम्न तथ्यों पर से वि १०१२ और १०४७ के मध्य कभी होना निर्धारित किया गया है। क्योकि एक ओर तो इसमें अमृतचन्द्राचार्य (वि. ६६२-१०१२) कृत तत्त्वार्थसार का एक श्लोक इसमें उद्धृत पाया जाता है और दूसरी ओर इसका एक श्लोक आ जयसेन नं.४ (वि १०५०) में उद्धृत है। तीसरी ओर गोमट्टसार (वि. १०४०) का पद्धति टीका-इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आ. शाम कुण्ड ने 'कषायपाहुड' तथा 'षटखण्डागम' के आद्य पाँच खण्डों पर 'पद्धति' नामक एक टीका लिखी थी, जिसकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत का मिश्रण थी, परन्तु शामकुण्ड क्योंकि कुन्द कुन्द का ही कोई बिगड़ा हुआ नाम प्रतीत होता है इसलिए कुछ विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि आ. कुन्द कुन्द कृत 'परिकम टीका' का ही यह कोई अपर नाम है । (जै./१/२७४) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 636 637 638 639