Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 633
________________ व्रत २. ब्रतकी भावनाएँ व अतिचार मुखावलोकन, जिनरात्रि, ज्येष्ठ, णमोकार पैतीसी, तपो विधि, तपो शुद्धि, त्रिलोक तीज, रोट तीज, तीर्थर वत, तेला व्रत त्रिगुणसार, त्रेपन क्रिया, दश निनियानी, दशलक्षण, अक्षयफलदशमी, उडंड दशमी, चमक दशमी, छहार दशमी. झावदशमी, तमोर दशमी, पान दशमी, फल दशमी, फूलदशमी, बारा दशमी. भण्डार दशमी, मुगन्ध दशमी, सौभाग्य दशमी, दीपमालिका, द्वादशीबत, काजी बारस, श्रावण दशमी, धनकलश, नवविधि, नक्षत्रमाला, नवकार व्रत, पचपोरिया, आकाश पंचमी, ऋषि पंचमी, कृष्ण पंचमी, कोकिल पंचमी, गारुड पंचमी, निर्जर पंचमी, श्रुतपंचमी, श्वेत पंचमी, लक्षण पंक्ति, परमेष्डीगुण बत, पल्लव विधान, पुष्पांजली, बारह तप, बारह बिजोरा, बेला, तीर्थकर बेला. शिवकुमार बेला, षष्ठम बेला, भावना व्रत, पंचविंशति-भावना, भावना पच्चीसी, मुरजमध्य, मुष्टि-विधान, मेघमाला, मौन व्रत, रक्षा बन्धन, रत्नत्रय, रविवार, दुग्धरसी, नित्यरसी, षट्रसी, रुक्मणी, रुद्रवसंत, लब्धिविधान, वसन्तभद्र, शीलवत, श्रुतज्ञानव्रत, पच-श्रुतज्ञान, श्रुतस्कन्ध. षष्ठीव्रत, चन्दन षष्ठी, षोडशकारण, सकट हरण, कौमार सप्तमी, नन्दसप्तमी, निर्दोष सप्तमी, मुकुट सप्तमी, मोक्षसप्तमी, शीलसप्तमी, समक्ति चौबीसी, समवशरण, सर्वार्थसिद्धि, भाद्रवन-सिंह-निष्क्रीडित, सुखकारण, सुदर्शन, सौवीर भुक्ति। नोट-[इनके अतिरिक्त और भी अनेको बत-विधान प्रसिद्ध है, तथा इनके भी अनेकों उत्तम-मध्यम आदि भेद है। उनका निर्देश-दे० बह-वह नाम। मत, रक्षा चासो, सुरजमध्य, भावना बत दे बत/१/७ ( गुरु साक्षीमें लिया गया वत भंग करना योग्य नहीं)। दे. सस्कार/२ (व्रतारोपण क्रिया गुरुकी साक्षीमें होती है)। ७. बत मंगका निषेध भ. आ/मू /१६३३/१४८० अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सवसंघसविखस्स । पञ्चक्रवाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं ।१६३३। पचपरमेष्ठी, देवता और सर्व संघकी साक्षीमें कृत आहारके प्रत्याख्यानका त्याग करनेसे अच्छा तो मर जाना है ।१६३३। (अ ग. श्रा./ १२/४४)। सा ध./७/१२ प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं । प्राणान्तस्तरक्षणे दुखं बतभङ्गो भवे भवे ।।२। प्राणान्त होनेकी सम्भावना होनेपर भी गुरु साक्षी में लिये गये व्रतको भग नहीं करना चाहिए। क्योंकि, प्राणों के नाशसे तो तरक्षण ही दुःख होता है, पर व्रत भंगसे भव-भवमे दुख होता है। दे. दिग्बत/३ (मरण हो तो हो पर व्रत भंग नहीं किया जाता)। मो मा. प्र/७/पृष्ठ/पंक्ति-प्रतिज्ञा भंग करनेका महा पाप है। इसतें तौ प्रतिज्ञा न लेंनी ही भली है। (३५१/१४) ।...मरण पर्यन्त कष्ट होय तो होहु, परन्तु प्रतिज्ञा न छोडनी । ( ३५२/५) । वत भंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण सा, ध/२/७६ समीक्ष्य बतमादेयमात्तं पाव्य प्रयत्नतः । छिन्नं दोस्तमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ७६) द्रव्य क्षेत्रादिको देखकर बत लेना चाहिए, प्रयत्नपूर्वक उसे पालना चाहिए। फिर भी किसी मदके आवेशसे या प्रमादसे व्रत छिन्न हो जाये तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर उसे पुनः धारण करना चाहिए। ९. अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतोंके नाम निर्देश ह. पु/३४/श्लो, नं.-सर्वतोभद्र (१२), बसन्तभद्र (१६), महासर्वतो- भद्र (५७), त्रिलोकसार (५६), वज्रमध्य (६२), मृदङ्गमध्य (६४), मुरजमध्य (६६), एकावली (६७), द्विकावली (६८), मुक्तावली (६१), रत्नावली (७१), रत्नमुक्तावली (७२), कनकावली (७४), द्वितीय रत्नावली (७६), सिंहनिष्क्रीडित (७८-८०), नन्दीश्वरवत (८४), मेरुपक्तिवत (८६), शातकुम्भवत (८७), चान्द्रायण व्रत (१०), सप्तसप्तमतपोबत (११), अष्ट अष्टम वा नवनवम आदि वत (६२), आचाम्ल वर्द्धमान व्रत (६५), श्रुतवत (१७), दर्शनशुद्धि वत (१८), तप' शुद्धि बत (६६), चारित्रशुद्धिबत (१००), एक कल्याणवत (११०), पंच कल्याण व्रत (१११), शील कल्याणकवत (११२), भावना विधिवत ( ११२), पंचविंशति कल्याण भावनाविधि बत (११४), दुखहरण विधि बत (११८), कर्मक्षय विधि बत ( १२१), जिनेन्द्रगुण संपत्ति विधि व्रत ( १२२), दिव्य लक्षण पंक्ति विधिवत (१२३), धर्मचक्र विधि व्रत, परस्पर कल्याण विधि व्रत.(१२४) । (चा. सा/१५१४१ पर उपरोक्तमेसे केवल १० व्रतोंका निर्देश है)। वसु श्रा/श्लोक नं.-पंचमी व्रत (३५५), रोहिणीबत (३६३), अश्विनी बत ( ३६६), सौख्य सम्पत्ति क्त (३६), नन्दीश्वर पंक्ति व्रत ( ३७३), विमान पंक्ति व्रत ( ३७६)। बत विधान संग्रह-[उपरोक्त सर्वके अतिरिक्त निम्न बोका अधिक उल्लेख मिलता है ।]-अक्षयनिधि, अनस्तमी, अष्टमी. गन्धअष्टमी, निशल्य अष्टमी, मनचिन्ती अष्टमी, अष्टाह्निका, आचारबर्धन, एसोनव, एसोदश. कंजिक, कर्मचूर, कर्म निर्जरा, श्रुतकल्याणक, क्षमावणी, ज्ञानपच्चीसी, चतुर्दशी, अनन्त चतुर्दशी, कली चतुर्दशी, चौतोस अतिशय, तीन चौबीसी, आदिनाथ जयन्ती, आदिनाथ निर्वाण जयन्ती, आदिनाथ शासन जयन्ती, वीर जयन्ती, वीर शासन जयन्ती, जिन पूजा पुरन्धर, जिन २. व्रतकी भावनाएं व अतिचार १. प्रत्येक व्रतमें पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार त. सू.//३२४ तत्स्थै र्यार्थ भावना पञ्च-पञ्च ।३। बतशीलेपु पश्च-पश्च यथाक्रमम् ।२४। -उन बतोको स्थिर करनेके लिए प्रत्येक वतकी पाँच-पाँच भावनाएं होती है।३। व्रतों और शीलोमे पाँच-पाँच अतिचार है जो क्रमसे इस प्रकार है ।२४। (विशेष देखो उस-उस वतका नाम)। (त. सा./४/६२)। त. सा./४/८३ सम्यक्त्ववतशीलेषु तथा सल्लेखनाविधी। अतोचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च-पञ्च यथाक्रमम् ।। -सम्यक्त्व व्रत शील तथा सब्लेखनाकी विधिमें यथाक्रम पाँच-पाँच अतिचार कहते है। २. व्रत रक्षणार्थ कुछ मावनाएँ त. सू./0/8-१२ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । दुवमेव वा १०१ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ।११। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्याथं ॥१२॥ =१ हिंसादि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्यका दर्शन भावने योग्य है ।। अथवा हिंसादि दुःख ही है ऐसी भावना करनी चाहिए ।१०। २. प्राणीमात्रमें मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानोमें करुणा वृत्ति, और अविनेयों में माध्यस्थ भावकी भावना करनी चाहिए ।११। (ज्ञा./२७/४); ( सामायिक पाठ/अमितगति/१) । ३. सवेग और वैराग्यके लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावना करनी चाहिए ।१२।-(विशेष दे० वैराग्य )। ३. ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं त. सा./४/६२ भावना संप्रतीयन्ते मुनीना भावितात्मनाम् ।२। ये पाँच-पाँच भावनाएं मुनिजनोंको होती हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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