Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 632
________________ ६२५ १ व्रत सामान्य निर्देश १. व्रत मामान्य निर्देश १. व्रत सामान्यका लक्षण त सु/७/१ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तद ।। - हिसा, अमत्य, चोरी, अब्रह्म ओर परिग्रहमे (यावज्जीवन दे भ आ/वि तथा द्र सं/टो) निवृत्त होना व्रत है ।श (घ ८/३,४१/०२/१), (भ. आ/वि/११८५/११७१/१६), (भ आ/वि /४२१/६१४/१६,२०) (द्र सं/टी/३५/१०१/१)। स.सि./७/९/३४२/६ बतमभिसधिकृतो नियम', इदं कर्तव्यमिद न कर्तव्यमिति बा। प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है ।यथा यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है' इस प्रकार नियम करना बत है । (रा वा./७/१/३/५३१/१५), (चा. सा/८/३)। प प्र/टो /२/१२/१७३/५ व्रतं कोऽर्थः । सर्व निवृत्तिपरिणाम । =सर्व निवृत्तिके परिणामको व्रत कहते है। सा ध/२/८० संकल्पपूर्वक सेव्ये नियमोऽशुभकर्मण । निवृत्ति वत स्याद्वा प्रवृत्ति शुभकर्मणि 101 किन्ही पदार्थों के सेवनका अथवा हिंसादि अशुभकर्मोका नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना बत है। अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मो में उसी प्रकार मकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है। ४. वतों में सम्यक्त्वका स्थान भ आदि /११६/२७७/१६ पर उद्धृत-पचबदाणि जदीर्ण अणुबदाइ च देसविरदाण । ण ह सम्मत्तण विणा तौ सम्मत्त पढमदाए । - मुनियोके अहिसादि पच महाव्रत और श्रावकोके पाँच अणुव्रत, ये सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होते है, इसलिए प्रथमत आचार्योंने सम्यक्त्वका वर्णन किया है। चा. सा /१६ एव विधाष्टाङ्ग विशिष्ट सम्यक्त्वं तद्विक्लयोरणुवतमहाव्रतयो मापि न स्यात । - इस प्रकार आठ अगोंसे पूर्ण सम्यग्दर्शन होता है। यदि सम्यग्दर्शन न हो तो अणुवत तथा महाबतोका नाम तक नही होता है। अ.ग. श्रा/२/२७ दवीय कुरुते स्थान मिथ्यावृष्टिरभीप्सितम्। अन्यत्र गमकारीब घोरर्युक्तो व्रतैरपि।२७१-घोर व्रतों से सहित भी मिथ्यादृष्टि वांछित स्थानको, मार्गसे उलटा चलनेवालेकी भाँति, अति दूर करता है। दे धर्म/२/६ ( सम्यक्त्व रहित बतादि अकिचित्कर है. वाल मत है। दे, चारित्र/६/८/(मिथ्यादृष्टि के बतोको महाव्रत कहना उपचार है)। दे अगला शीर्षक (पहिले तत्त्वज्ञानी होता है पीछे व्रत ग्रहण करता है)। २. निश्चयसे वतका लक्षण द्र स/टी (३५/१००/१३ निश्चयेन विशुद्वज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्व भावनोत्पन्नसुखसुधास्वादबलेन समस्तशुभाशुभरागादि-विकल्पनिबृत्तिब तम् । निश्च यनयकी अपेक्षा विशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतके आस्वादके बलसे सब शुभ व अशुभ राग आदि विकल्पोंसे रहित होना व्रत है। प.प्र./२/६७/१८६२ स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिर्वतन इति निश्च यवतं । शोल अर्थात अपने आत्मासे अपने आस्मामें प्रवृत्ति करना, ऐसा निश्चय व्रत। पं.ध./उ./श्लो. सर्वत' सिद्धमेवैतद्वत बाह्य दयाजिषु । बतमन्त' कषायाणां त्यागसैषात्मनि कृपा ७५३। अर्थाद्रागादयो हिसा चास्यधर्मो व्रतच्युति' । अहिंसा तत्परित्यागो व्रत धर्मोऽथवा किल १७५५ । तत. शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयाते। चारित्रापरनामैतद्ववतं निश्चयतः परम् ।७५८१-१. प्राणियोंपर दया करना बहिरंग व्रत है, यह बात सब प्रकार सिद्ध है। कषायोंका त्याग करना रूप स्वदया अन्तरंग व्रत है ७५३.२. राग आदिका नाम ही हिसा अधर्म और अबत है, तथा निश्चयसे उसके त्यागका ही नाम अहिंसा व्रत और धर्म है १७५३ ( और भी दे अहिसा/२/१)। ३. इसलिए जो मोहनीय कर्मके उदयके अभावमें शुद्धोपयोग होता है, यही निश्चयनयसे, चारित्र है दूसरा नाम जिसका ऐसा उत्कृष्ट व्रत है ।७५८ ५. व्रतदान व ग्रहण विधि भ आ/वि/४२१/६१४/११ ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठ स्थितिकल्प । अचेलताया स्थित उद्देशिकरजपिण्डपरिहरणोद्यत' गुरुभक्तिकृतविनीतो व्रतारोपणा) भवति । .. इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः श्रावकश्राविकावर्गाय बतं प्रयच्छेत् स्वय स्थित' सूरि' स्ववामदेशे रिथताय विरताय बतानि दद्याद । ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमण व्रतं-जिसको जीवों का स्वरूप मालूम हुआ है ऐसे मुनिको नियमसे व्रत देना यह व्रतारोपण नामका छठा स्थिति कल्प है। जिसने पूर्ण निर्ग्रन्थ अवस्था धारण की है, उददेशिकाहार और राजपिडका त्याग किया है, जो गुरु भक्त और विनयी है, वह व्रतारोपण के लिए योग्य है। (यहाँ इसी अर्थ की द्योतक एक गाथा उद्धृत की है ) बत देनेका क्रम इस प्रकार है-जब गुरु बैठते है और आर्यिकाएँ सम्मुख होकर बैठती है, ऐसे समयमें श्रावक और श्राविकाओंको गत दिये जाते है। बत ग्रहण करनेवाला मुनि भी गुरुके बायी तरफ बैठता है। तब गुरु उसको बत देते है। ब्रतोंका स्वरूप जानकर तथा श्रद्धा करके पापोंसे विरक्त होना बत है। ( इसलिए गुरु उसे पहले वोंका उपदेश देते हैं-(दे० इसी मूल टीकाका अगला भाग ) । बत दान सम्बन्धी कृतिकर्म के लिए-दे० कृतिकर्म ) । मो मा. प्र/७/३५९/१७ व ३५२/७ जैन धर्मविर्षे तो यह उपदेश है, पहलें तौ तत्त्वज्ञानी होय, पीछे जाका त्याग करै,'ताका दोष पहिचाने । त्याग किए गुण होय, ताको जान। बहुरि अपने परिणामनिको ठीक करै। वर्तमान परिणामनि हीकै भरोसै प्रतिज्ञा न करि बैठे। आगामी निर्वान होता जानै तौ प्रतिज्ञा करै । बहुरि शरीरकी शक्ति वा द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका विचार करै। ऐसे विचारि पीछे प्रतिज्ञा करनी. सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञात निरादरपना न होय, परिणाम चढते रहै। ऐसी जैनधर्मकी आम्नाय है। सम्यग्दृष्टि प्रतिज्ञा करै है, सो तत्त्वज्ञानादि पूर्वक ही व्रत सामान्यके भेद त. सू./७/२ देशसर्वतोऽशुमहती ।२१-देशत्यागरूप अणुव्रत और सर्व स्यागरूप महावत, ऐसे दो प्रकार व्रत हैं । (र. क श्रा./५०) । र. क. श्रा./५१ गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षानतात्मक चरणं । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रय यथासंख्यमाख्यातं ५११- गृहस्थोका चारित्र पाँच अणुनत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत इस प्रकार १२ भेदरूप कहा गया है। (चा, सा./१३/७); (पं वि/६/२४:७/५); (वसु. प्रा./२०७); (सा. घ./२/१६) । १. व्रत गुरु साक्षीमें लिया जाता है दे. व्रत/१/५ (गुरु और आर्यिकाओं आदिके सम्मुख, गुरुकी बायीं ओर बैठकर श्रावक व श्राविकाएँ बत लेते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मा० ३-७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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