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व्युदास
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व्रत
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पुनरनपेक्ष क्रियते इत्यस्ति विशेष । - प्रश्न-प्रायश्चित्तके भेदो में व्युत्सर्ग कह दिया गया । पुन तपके भेदो में उसे गिनाना निरर्थक है ? उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि इनमे भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होनेपर उसकी शुद्धिके लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वय निरपेक्षभावसे किया जाता है ।
७. व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रतमें अन्तर रा बा /8/६/६/६२५/१ स्यादेतत्-महावतोपदेशकाले परिग्रह निवृत्तिरुक्ता, तत पुनरिद वचनमनर्थकमिति, तन्न, कि कारणम् । तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात् । प्रश्न-महावतोंका उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुन व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्यो कि, परिग्रहत्याग व्रतमें सोना-चाँदो आदिके त्यागका उपदेश है, अत यह उससे पृथक् है । 4. व्युत्सर्गतप व त्याग धर्ममें अन्तर रा. वा/६/६/१६/१६८/६ स्यान्मत-वक्ष्यते तपोऽभ्यन्तर षड्विधम, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रणमस्य सिद्धमित्यनर्थक त्यागग्रहणमिति; तन्न, कि कारणम् । तस्यान्यार्थत्वात् । तद्धि नियतकाल सर्वोत्सर्ग लक्षणम, अय पुनस्त्याग यथाशक्ति अनियतकाल' क्रियते इत्यस्ति भेद । = प्रश्न-छह प्रकार के अभ्यन्तर तपमें उत्सर्ग लक्षणवाले तपका ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मोके प्रकरणमे त्यागधर्मका ग्रहण निरर्थक है । उत्तर-नही, क्योकि, वहाँ तपके प्रकरण में तो नियतकालके लिए सत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है। रा वा./६/२६/७/६२५/४ स्यादेतत-दश विधधर्मेऽन्तरीभूतस्त्याग इति पुनरिद वचनमनर्थ कमिति, तन्ना कि कारणम् । प्रासुकनिरबद्याहारादिनिवृत्तितन्त्रत्वात् तस्या-प्रश्न-दश धर्मोंमे त्याग नामका धर्म अन्तर्भूत है अत यहाँ व्युत्सर्गका व्याख्यान करना निरर्थक है। उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि, त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादिका अमुक समय तक त्यागके लिए त्याग धर्म है । अत: यह उससे पृथक् है।
* व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता है व्युदास-दे अभाव ।
--दे. प्रायश्चित्त/४। व्युत्क्रांत-प्रथम नरकका ११ वॉ पटल । दे. नरक/५ । व्युपरत क्रिया निवृत्ति-दे. शुक्लध्यान। व्युष्टि-क्रिया-दे. संस्कार(२। वणमुख-औदारिक शरीर में इनका प्रमाण ।-दे.औदारिक/९/७१ व्रत-यावज्जीवन हिसादि पापोंकी एकदेश या सर्व देश निवृत्तिको बत कहते है। वह दो प्रकारका है-श्रावको के अणुबत या एकदेशवत तथा साधुओके महावत या सर्वदेशबत होते है। इन्हे भावनासहित निरतिचार पाल नेसे साधकको साक्षात या परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है, अतः मोक्षमार्ग में इनका बहुत महत्त्व है।
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· | व्रत निश्चयसे एक है । ब्यवहारसे पाच है।
-दे छेदोपस्थापना। व्रत सामान्यके भेद । - गुण व शीत व्रतोंके भेद व लक्षण ।
-दे वह वह नाम। व्रतोंमें सम्यक्त्वका स्थान। नि.शल्य व्रत ही यथार्थ है। -दे. व्रती। संयम व व्रतमें अन्तर ।
-दे सयम/२। व्रतके योग्य पात्र । -दे अगला शीर्षक । व्रत दान व ग्रहण विधि। व्रत ग्रहणमें द्रव्य क्षेत्रादिका विचार ।
-दे बत/१/५८ तथा अपवाद/२। व्रत गुरु साक्षीमें लिया जाता है। ७ | व्रतभंगका निषेध ।
कथंचित् व्रतमंग कीपाशा-दे०धर्म/६/४वचारित्र६/४॥ व्रतमंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण। अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतोंके नाम-निर्देश । अक्षयनिधि आदि व्रतोंके लक्षण। -दे. वह वह नाम । व्रत धारण का कारण व प्रयोजन -दे० प्रत्रिज्या/१/७॥ व्रतकी भावनाएँ व अतिचार प्रत्येक व्रतमें पाँच पाँच भावनाएँ व अतिचार । भावनाओंका प्रयोजन व्रतकी स्थिरता -दे. बत/२/१। पृथक्-पृथक् व्रतोंके अतिचार -दे. वह वह नाम । व्रत रक्षार्थ कुछ भावनाएँ। ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए है।
कथंचित् श्रावकोंको भी भानेका निर्देश । ५ | व्रतोंके अतिचार छोडने योग्य हैं।
महाव्रत व अणुव्रत निर्देश महाव्रत व अणुव्रतके लक्षण। स्थूल व सूक्ष्मव्रतका तात्पर्य ।
महाव्रत व अणुव्रतोंके पॉच मेद । ४ रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है। * | श्रावक व साधुके योग्य व्रत। -दे. वह वह नाम ।
स्त्रीके महाव्रत कहना उपचार है। -दे, वेद/७/५ । | मिथ्यादृष्टिको व्रत कहना उपचार है।
-दे. चारित्र/६/८ | अणवतीको स्थावरघात आदिकी आशा नहीं। | महाव्रतको महाव्रत व्यपदेशका कारण ।
अणुव्रतको अणुव्रत व्यपदेशका कारण । अणुव्रतमें कथंचित् महाव्रतपना। अणुव्रतको महाव्रत नहीं कह सकते।
- दे. सामायिक/३। महाव्रतमें कथंचित् एकदेश व्रतपना। अणुव्रत और महाव्रतके फलोंमें अन्तर ।
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व्रत सामान्य निर्देश व्रत सामान्यका लक्षण। निश्चयसे व्रतका लक्षण। व्यवहार निश्चय व्रतोंमें आस्रव संवरपना ।
-दे. संवर। निश्चय व्यवहार व्रतोंकी मुख्यता गौणता।
-दे. चारित्र/४-७।
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