Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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व्युत्सर्ग
६२२
१. कायोत्सर्ग निर्देश
देवहा स्तनाय । मनोदुष्ट १०० मत्स्योत मतम् ।
दोष है। १२. कैथका फल पकडनेवाले मनुष्यकी भॉति हाथका तलभाग पसारकर या पाँचो अंगुलो सिकोडकर अर्थात् मुट्ठी बॉधकर खड़े होना कपित्थमष्टि है। सिरको हिलाते हुए खडे होना सिरचालन दोष है। १३. गंगेकी भाँति हुकार करते हुए खडे होना अंगुलीसे नाक या किसी वस्तुकी ओर सकेत करते हुए खडे होना मूकसंज्ञा दोष है। १४. अंगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है। १५. भौह टेढो करना या नचाना भ्र.क्षेप दोष है। १६. भीलकी स्त्रीकी भाँति अपने गुह्य प्रदेशको हाथ से ढक्ते हुए खडे होना शबरीगुह्यगृहन दोष है। १७. बेडोसे जक्डे मनुष्यकी भॉति खडे होना शस्खलिता दोष है। १८. मद्यपायीवत शरीरको इधरउधर झुकाते हुए खडे होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष है ( अन. ध./८/११२-११६, शेष दे० आगे)। चा. सा /१५६/२ व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वाङ्गचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषा' स्युः। घोटक्पाद, लतावक्र, स्तम्भावष्टम्भ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगृहन, शृङ्खलित लम्बितं उत्तरित, स्तनदृष्टि , काकालोकनं, खलीनितं, युगकन्धरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकम्पित, मूकस ज्ञा, अड गुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्तं. पिशाच, अष्टदिगवलोकन, ग्रोवोन्नमन, ग्रोवावनमन, निष्ठीवन, अगस्पर्शनमिति द्वात्रिशद्दोषा भवन्ति । -जिसमे दोनो भुजाएँ लम्बी छोड दी गयी है, चार अगुलके अन्तरसे दोनो पैर एकसे रक्खे हुए है और शरीरके अगोपांग सब स्थिर है ऐसे कायोत्सर्गके भी ३२दोष होते हैघोटकपाद, लतावक्र, स्तभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगृहन, खलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोक्न, खलीनित, युगकन्धर, कपित्थमुष्टि, शीष प्रक पित, मूकस ज्ञा, अगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेय दिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिम दिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन, और अगस्पर्श । [ इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर भ-आ। वि में दे दिये गये है, शेषके लक्षण स्पष्ट है । अथवा निम्न प्रकार है।] अन.ध.//११५-१२१ लम्बित नमनं मूट स्तस्योत्तरितमुन्नम । उन्नभय्य स्थितिर्वक्ष' स्तनदावस्तनोन्नति. १११॥ शोर्षकम्पनम् ।११७ शिर' प्रकम्पित सज्ञा. ।।११८१ . ऊध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यध' ।११। निष्ठीवनं वपु स्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम् । मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम् ।१२०। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षाव्यतिक्रम। लोभाकुलत्वं मूढत्व पापकर्मक्सर्गता ।१२१॥ -१. शिरको नीचा करके खडे होना लम्बित दोष है । २. शिरको ऊपरको उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है। ३. बालकको दूध पिलानेको उद्यत स्त्रीवत् बक्ष स्थल के स्तनभागको ऊपर उठा कर खडे होना स्तनोन्नति दोष है। ४. कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकम्पित. ५. ग्रोवाको ऊपर उठाना ग्रोवोनयन । ६ ग्रीवाको नीचेकी तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष है १११५-११४। ७.थूकना आदि निष्ठीवन । ८. शरीरको इधर-उधर स्पर्श करना वपु स्पर्श। कायोत्सर्गके योग्य प्रमाणसे कम काल तक करना होन या न्यून। १०. आठों दिशाओंकी तरफ देखना दिगवलोकन। ११. लोगोको आश्चर्योत्पादक ढगसे खडे होना मायाप्रायास्थिति । १२. और वृद्धावस्थाके कारण कायोत्सर्गको छोड देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष है ।१२०। १३. मनमें विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता। १४. समयको कमीके कारण कायोत्सर्गके अशोको छोड देना कालापेक्षा व्यतिक्रम । १५. लोभ वश चित्तमे विक्षेप होना लोभाकुलता । १६ वर्तव्य अकर्तव्यके विवेकसे शून्य होना मूढता और कायोत्सर्गके समय हिंसादिके परिणामोका उत्कर्ष होना पापक कसर्गता नामक दोष
११. वन्दनाके अतिचार व उनके लक्षण मू. आ./६०३-६०७ अणादिट्ठ' च यद्ध' च पविटु' परिपीडिदं । दोलाइ
यमकुसियं तहा कच्छभरिंगिय ।६०३। मच्छ्रव्वत्तं मणोदूट वेदियाबद्धमेव य। भयदोसो बभयत्त इढिगारव गारवं ।६०४। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठ तज्जिद तधा। सद'च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।६०५१ दिमदिट्ठ' चावि य सगस्स करमोयणं । आलद्धमणालद्ध' च हीणमुत्तरचूलियं ।६०६। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिम । बत्तीसदोसविसुद्ध किदियम्म पउचदे 1६०७१ - अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनोत, प्रदुष्ट, तजित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुचित, दृष्ट, अदृष्ट, सघकरमोचन, आलब्ध, अनालब्ध हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तोस दोषोंसे रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है ।६०३.६०७१ ( चा. सा./१५५/३)। अन.ध./८/६८-१११/८२२ अनावृतमतात्पर्य बन्दनायां मदोधृतिः । स्तब्धमत्यासन्नभाव' प्रविष्ट परमेष्ठिनाम् ।। हस्ताम्या जानुनोः स्वस्य संस्पर्श परिपीडितम् । दोलासितं चलन कायो दोलावत प्रत्ययोऽथवा reu भालेडकुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽडकुशितं मतम् । निषेदुष' कच्छपवद्रिडवा कच्छपरिङ्गितम्।१००ामत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत त्वेकपाश्वत । मनोदुष्ट खेदकृतिगुर्वायु परि चेतसि ११०१। वेदिबध स्तनोत्पीडो दोभ्याँ वा जानुबन्धनम् । भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यता विभ्यतो गुरो ११०० भक्तो गणो मे भावीति बन्दारोद्धिगौरवम् । गौरव स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।१०३। स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादे स्तेनितं मले। प्रतिनीतं गुरोराज्ञारखण्डन प्रातिकून्यतः ॥१०४। प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमा त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषा स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः ॥१०५। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम् । त्रिवलितं कटिग्रोवाइभङ्गो भृकुटिर्नवा ।१०६॥ करामर्शोऽथ जान्वन्त' क्षेपः शीर्षस्य कुञ्चितम् । दृष्ट पश्यन् दिश स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्छु वा ।१०७। अदृष्ट गुरुदृड्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम् । विष्टि सघस्येयमिति धी. संघकरमोचनम् ।१०८। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालन्धं तदाशया। हीनंन्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका ।१०६। मूको मुखान्तवन्दारोहङ्काराद्यथ कुर्वत । दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीच ।११०॥ द्वात्रिशो वन्दने गोत्या दोषः सुललितायः। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निजरार्थिना ।११११-१. बन्दनामें तत्परता या आदरका अभाव अनाहत दोष है, २. आठ मदोके वश होकर अह कार सहित वन्दना करना स्तब्ध दोष है, ३. अहंतादि परमेष्ठियोंके अत्यन्त निकट होकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है, ४. वन्दनाके समय जधाओका स्पर्श करना परिपीडित दोष है, ५. हिडोलेकी भाँति शरीरका अथवा मनका डोलना दोलायित दोष है ।८-६1. अकुशकी भॉति हाथको मस्तकपर रखना अकुशित दोष है, ७.बैठे-बैठे इधर उधर रौंगना कच्छपरिंगित दोष है ।१००1८. मछलीकी भाँति कटिभागको ऊपरको निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है. ६. आचार्य आदिके प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष है ।१०११ १०. अपनी छातीके स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओंसे दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है, ११. सप्तभय युक्त होकर वन्दनादि करना भयदोष, १२. आचार्य आदिके भयसे करना विभ्य दोष है ।१०२। १३. चतु' प्रकार सघको अपना भक्त बनानेके अभिप्रायसे वन्दनादि करना ऋद्धि गौरव, १४. भोजन, उपकरण आदिकी चाहसे करना गौरव दोष है ।१०३३ ११. गुरुजनोसे छिपाकर करना स्तेनित, १६. और गुरुको आज्ञासे प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष है ।१०४।१७, तीनों योगोंसे द्वेषीको क्षमा धारण कराये मिना या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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