Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 627
________________ ब्युत्सर्ग दुस्थित शुभपरिणामो गतिरूपस्योत्थानस्याभावानियत इत्यु च्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादृश्यानासनयो एकत्र एकदा यासीन एवं धर्म शुध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उरि निषण्णो भवति परिणामोत्यानारायानास्तु Sशुमध्यानपरस्तस्य निषण्णनि । कायाशुभ परिणाम या अनुत्थानात् । =कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थित निविष्ट, उपविष्टस्थ और उनविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद रहे है। धर्म न शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते है उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नामवाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनोका उत्थान होनेके कारण यहाँ उत्थानका प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है। तहाँ शरीरका खम्बेके समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञानका एक ध्येय वस्तुमें एकाग्र होकर ठहरना भावोस्थान है आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते है उनका कायोत्सर्गस्थित है। शरीर के उत्थान से उस और शुभ परिणामो की उगटिरूप उत्थानके अभाव से निमिट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होनेसे परतावस्था और आसनावस्थामे यहाँ विरोध नही है । जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में बशीन होता है उसका उपविष्टोस्थित कायोत्सर्ग है, क्योकि उसके परिणाम तो खड़े है, पर शरीर नही खडा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि, वह शरीरसे बैठा हुआ है और परिणामो से भी उत्थानशील नहीं है। ★ कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकारसे होता है ०/१/२ ३. मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि । व. आ./गा वोसरिदबाहुजुगलो चदुर गुलअंतरेण समपादो । सब्बगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु । ६५० जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरक्या ते सते असे काओगे ठियो६५५६ काओसम्म ठिदो चिचिदु इरियावचस्स अतिचार त सम्म समाणित्ता धम्म सुक्क च चितेज्जो | ६६४ | = जिसने दोनो बाहु लम्बी को है, चार अंगुलके अन्तर सहित समपाद है तथा हाथ आदि अगोका चाहन नही है वह शुद्ध कायोत्सर्ग है | ६५० देव मनुष्य, तियंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग है सबको कायोसर्वमें स्थित हुआ में अच्छी तरह सहन करता हूँ । ६६५॥ कालो में तिष्ठा ईर्यापथके अतिचारके नाशको चिन्तवन करता मुनि उन सब नियमको समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तवन करो । १६६४ ( आ /वि/११६/२००/२०), (अन ध /०/०६/८०४) । भ. आ / वि / ५०६ / ०७२६ / १६ मनसा शरीरे ममेदं भावनिवृत्ति मानस कायोत्सर्गप्रलम्भुजस्य चतुरङ्गुलमात्रपादान्तरस्य निश्चताव स्थानं कायेन कायोत्सर्ग. मनसे शरीर में ममेद बुद्धिकी निवृत्ति मानसकायोत्सर्ग है और ( 'मै शरीरका त्याग करता हूँ ऐसा वचनोधार करना वचनकृत कामोत्सर्ग है)। बाहु नोचे छोडकर पार अगुलमात्र अन्तर दोनो पाँवों में रखकर निश्चल खडे होना वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है । 1 ६२० जन. ६/२२-२४/८६६ जिनेन्द्रमुदया गाथा ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे । पंकजे प्रवेश्यान्त निरुध्य मनसा निलम् | १२ | पृथग् द्विक्षगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छने । नवकृत्व, प्रयोक्तैव दहत्यह सुधोर्महत् । ॥२३॥ चापसर्गे कार्यों व समाधिक पुण्य शतगुणं चैत्त सहस्रगुणमावहेत् | २४| व्युत्सर्गके समय अपनी प्राणवायुको Jain Education International - १. कायोत्सर्ग निर्देश 4 भीतर प्रविष्ट करके उसे आनन्दसे विकसित हृदयकमलमे रोककर जिनेन्द्र मुद्राके द्वारा णमोकार मन्त्रकी गाथाका ध्यान करना चाहिए | २३ | गाथा के दो-दो और एक अशको पृथक्-पृथक् चिन्तवन करके अन्तमे उस प्राणवायुको धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करनेवालेके चिरसचित महात् कर्मराशि भस्म हो जाती है | २३ | प्राणायाममें असमर्थ साधु वचनके द्वारा भी उस मन्त्र का जाप कर सकता है, परन्तु उसे अन्य कोई न सुने इस प्रकार करना चाहिए। परन्तु वाचनिक और मानसिक जपोके फलमे महान् अन्तर है। दण्डको के उच्चारणकी अपेक्षा सौगुना पुण्य संचय वाचनिक शाप होता है और हजारगुणा मानसिक जापमे |२४| ४. कायोत्सर्गके योग्य दिशा व क्षेत्र भ. आ // ५५०/०६३ पाचीगोदी चिमुह मिव कुदि गते । आलोयपत्ती काउसग्ग अणाबाधे । ५५०१ = पूर्व अथवा उत्तर दिशाकी तरफ मुँह करके किवा जिनप्रतिमाकी तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग यह एकान्त स्थानमें अबाधित स्थानमें अर्थात् जहाँ दूसरोका आनाजाना न हो ऐसे अमार्ग में करता है। ५. कायोत्सर्गके योग्य अवसर सू. आ / ६८३.६६५ मते पाणे गामतरे यचमाविरिचरिमे पाऊण ठति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए । ६६३ | तह दिवसिय रादियपविचमाविरिचरिने त सव्य समाजिता धम्म सुक्क च झायेज्जो | ६६५। भक्त पान, ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक उत्तमार्थ, इनको जानकर धीरपुरुष अतिशयकर दुखके क्षयके अर्थ कायोत्सर्गमे तिष्ठते है । ६६३ | इसी प्रकार देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व उत्तमार्थ इन सब नियमो - को पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानको ध्यावे । ६६५ । 1 दे० अगला शीर्षक- ( हिसा आदि पापो के अतिचारोमें, भक्त पान व गोचरीके पश्चात, तीर्थ व निषका आदिको वन्दनार्थ जानेपर स दीर्घ शंका करनेपर, ग्रन्थको आरम्भ करते समय व पूर्ण हो जानेपर के दोषोकी निवृतिके अर्थ कायोत्सर्ग किया जाता है | ) ६. यथा अवसर कायोत्सर्गके कालका प्रमाण सु. ६२४-६६९ बरार मुस्स भिण्मु जणर्य होदि सेसा काम होत अगे ठाणे ६५६। असद देवसिय क पक्खियं च तिणिसया । उस्सासा कायव्या नियमता अप्पमत्तेण । |६५७| चादुम्मासे चउरो सदाई सवत्थरे य पचसदा । काओसग्गुस्सासा पचसु ठाणेसु णादव्वा ६८ पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चे य । अट्ठसद उस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा ॥ ६५६। भत्ते पाणे गामतरे य अरहहत समणसेज्जासु उच्चारे पस्सवणे पणवीस होति उस्सासा | ६६०| उदेसे णिदेसे सज्झाए वंदणेय परिधाणे । ससामुसाखा काओसम्महि कादव्या 1६६१६ कायोत्सर्ग एक उत्कृष्ट और अन्तर्मुहुर्त प्रमाण जघन्य होता है। शेष कामो दिन-रात्रि आदिके भेद बहुत है ||३६| जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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