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व्यंतर
८. भवनों आदिका विस्तार
१. सामान्य प्ररूपणा
ति प./६/गा का भावार्थ - १. उत्कृष्ट भवनो का विस्तार और बाहल्य क्रमसे १२००० व ३०० योजन है । जघन्य भवनोका २५ व १ योजन अथवा १ कोश है 1८-१० उत्कृष्ट भवनपुरोका ५१०००,०० योजन और जघन्यका १योजन है | २१ | [त्रि सा / ३०० मे उत्कृष्ट
२. विशेष प्ररूपणा
ति प/४/गा.
२५-२८
३०
३२
७४
७७
१६६
२२५
१६५३
१६७१
१७२६
१७५६
१०३६-३७
१६४४
१६६५
२०५०
२१०७
२१६२
२१८५ २५४०
८०
१४७
१८१
१८५
१८६
१६५
११५ २३२-२३३ ति प / ६ / गा.
७६
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स्थान
[जी] जगतीपर जगतीपर
विजय द्वार
विजयार्थ
गंगाकुण्ड
हिमवास
पद्म हद
अन्य हृद
महाहिमवान आदि
पांडुकवन
सौमनस
नन्दन
यमकगिरि
दिग्गजेंद्र
शाल्मली वृक्ष
" स्थल
इष्वाकार
मंदीश्वरके बनोगे रुचकबर द्वी. द्विजम्बूद्वीप विजयादिके
उपरोक्त नगरके
उपरोक्त नगरके मध्य
उपरोक्त नगरके प्रथम दो
मडल
तृ० चतु० मडल चैत्य वृक्षके बाहर
तरोंकी गणिकाओके
भवनादि
भवन
पुर
नगर
प्रासाद
भवन
भवन
भवनं
प्रासाद
पुर
भवन
प्रासाद
भवन
प्रासाद
भवन
नगर
भवन
प्रासाद
33
नगर
६१५
व्यकलनाना या Substraction- (दे० गणित / II / ४१० ।।
व्यक्त राग-३० / ३
व्यक्ति
म्या. सू./२/२/१४ व्यक्तिगुणविशेषायमूर्ति
ज. उ.म.
व्यक्ति
भवनपुरका विस्तार १०००,०० योजन बताया है ।] उत्कृष्ट आवास १२२०० योजन और जघन्य ३ कोश प्रमाण विस्तारवाले है । ( त्रि. सा. / २८-३०० ) । [ नोट - ऊँचाई सर्वत्र लम्बाई व चौडाईकेमध्यवर्ती जानना, जैसे १०० यो लम्बा और ५० यो. चौडा हो तो ऊँचा ७५ यो होगा। कूटाकार प्रासादोका विस्तार मूलमें मध्य २ और ऊपर १ होता है। ऊँचाई मध्य विस्तारके समान होती है।
ज.
उ.
आकार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
चौकोर
कूटाकार चौकोर
11
::::
::::
::::
१
17
"
31
लम्बाई
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१०० घ
३०० ध. २०० ध.
X
१२००० यो०
१ को.
X
१ को
२० को
X
१२५ को,
१ को
३१ यो
१२००० यो.
२.यो.
X
X
३००० ध.
३१ यो. १/२ को.
पद्म हदसे उत्तरोत्तर दून। → हिमवानसे उत्तरोत्तर दूना | १५ को १ को. → पांडुवनवासे दुगुने - → सौमनस वालेसे दुगुने - १२५ को. २५० को, ६२३ को. ९३३ को. १/२ को. ३/४ को, निषेध पर्वतवत् ←| ३१ यो, ६२ यो, → गौतमदेव के भवन के समान ← (६००० यो ) ३१ यो १२५ बो
X
→ मध्य प्रासादवत् ←---
४०००यो
चौडाई
1
५० ध
१५० ध. १०० ध २ यो.
६००० यो.
१/२ को
ऊँचाई
७५ ध. २२. १५० ध
४ यो.
३/४ को.
२००० ध
६२३ यो.
३/४ को.
२५० यो.
→ मध्य प्रासादसे आधा ← ३१३ यो.
८४००० यो.
६२३ यो.
१.
ग्रहण
न्या. सू./भा/९/२/६/२४२/१६ व्यक्तिमा करने योग्य विशेषगुणोको आश्रयरूप मूर्ति व्यक्ति है । २. अथवा स्वरूपके लाभको व्यक्ति कहते है।
म्या वि. /वृ/१/१९२/४२६/९६ व्यक्तिरच समान रूपे 'यश्यत इति व्यक्ति" इति व्युत्पते। जो व्यक्त होता है उसे व्यक्ति कहते हैं ऐसी व्युत्पत्ति होने के कारण दृश्यमान रूप व्यक्ति है ।
X
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