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वेद
५. गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
दापि मनुष्यणात गौण है. सी. मनुष्य में तो
लिए प्रयुक्त है। यद्यपि मनुष्यणी शब्दका प्रयोग द्रव्य स्त्री अर्थ मे भी किया गया है, पर वह अत्यन्त गौण है, क्योकि, ऐसे प्रयोग अत्यन्त अल्प है। योनिमती तिपंच व योनिमती. मनुष्य ये शब्द विशेष विचारणीय है। तहाँ मनुष्यणी के लिए प्रयुक्त किया गया तो स्पष्ट ही द्रव्यस्त्रीको सुचित करता है, परन्तु तियंचोमे प्रयुक्त यह शब्द द्रव्य व भाव दोनो प्रकारकी स्त्रियोके लिए समझा जा सकता, क्यो कि, तहाँ इन दोनोके हो आलापोमे कोई भेद सम्भव नहीं है। कारण कि तियंच पुरुषों की भॉति तिर्यंच स्त्रियाँ भी पाँचवे गुणस्थानसे ऊपर नहीं जाती। इसी प्रकार द्रव्य स्त्री के लिए भी पाँचवे गुणस्थान तक जानेका विधान है।) क. पा. ३/३-२२/४२६/२४१/१२ मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिसणवंसयवेदोदइल्लाण गण । मणुस्सिणो त्ति वुत्ते इस्थिवेदोदयजीवाण गहणं । - सूत्रमे मनुष्य ऐसा कहनेपर उससे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयवाले मनुष्योका ग्रहण होता है। मनुष्यनी' ऐसा कहनेपर उससे स्त्रीवेद के उदयवाले मनुष्य जीवोका ग्रहण होता है। ( क. पा. २/२-२२/६३३८/२१२/१)।
४. द्रव्य व भाव वेदोंमें परस्पर सम्बन्ध १. दोनों के कारणभूत कर्म मिन्न हैं ५.सं./प्रा./१/१०३ उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूर्ण । जोणी य लिगमाई णामोदय दव्ववेदो दु ।१०३ -नोकषायोके उदयसे जीवोके भाववेद होता है। तथा योनि और लिग आदि । द्रव्य वेद नामकर्मके उदयसे होता है ।१०। (त सा./२/98), (गो. जी/मू./२७१/५६१), (और भी दे० वेद/९/३ तथा वेद/२) ।
२. दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान पं स प्रा /१/१०२, १०४ तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हुँ दबभावादो। ते चेव हु विवरीया सभवति जहाकम सन्वे ।१०२॥ इत्यी पुरिस णउंसय वेया खलु द्रव्वभावदो होति। ते चेव य विवरीया हव ति सव्वे जहाक्मसो।१०४। -द्रव्य और भावकी अपेक्षा सर्व ही जीव तीनो वेदवाले दिखाई देते है और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी सम्भव है ।१०२। स्त्री वेद पुरुषवेद
और नप सक वेद निश्चयसे द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते है और वे सर्व ही विभिन्न नोकषायोके उदय होनेपर यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी परिणत होते है।१०४। [अर्थात कभी द्रव्यसे पुरुष होता हुआ भावते स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भावसे पुरुष भी होता है-दे० वेद/२/१] गो जी/ मू/२७१/१६१ पुरिच्छिस ढवेदोदयेण पुरिसिच्छिस डओ भावे । णामोद येण दवे पाएण समा कहि विसमा ।२७१। = पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकमके उदयसे जीव पुरुष स्त्री और नपुसक रूप भाववेदोको प्राप्त होता है और निर्माण नामक नामकम के उदयसे द्रव्य वेदोंको प्राप्त करता है। तहाँ प्राय करके तो द्रव्य और भाव दोनों वेद समान होते है, परन्तु कही-कही परिणामोकी बिचित्रताके कारण ये असमान भी हो जाते है ।२७१। -(विशेष दे० वेद/२/१)। १. चारों गतियोंको अपेक्षा दोनोमें समानता व
असमानता गो. जी. जी. प्र /२७१/५६२/२ एते द्रव्यभाववेदा प्रायेण प्रचुरवृत्त्या
देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समा द्रव्यभावाभ्या समवेदोदयाङ्किता भवन्ति । क्वचित्कर्मभूमि-मनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमा:-विसदृशा अपि भवन्ति । तद्यथा- द्रव्यत पुरुष भावपुरुष भावस्त्री भावनपुसक । द्रव्य स्त्रियां भावपुरुष' भावस्त्री
भावनपसक । द्रव्यनपुंसके भाषपुरुष भावस्त्री भावनपुसक इति विषमत्व द्रव्यभावयोरनियम कथित । कुत द्रव्य पुरुषस्य क्षपकण्यारूढानिवृत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे "सेसोदयेण बि तहा माणुबजुत्ता य ते दु सिझति ।" इति प्रतिपादकत्वेन सभवात् । -ये द्रव्य और भाववेद दोनो प्रायः अर्थात प्रचुर रूपसे देव नारकियोमै तथा सर्व ही भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यचो में समान ही होते है, अर्थाद उनके द्रव्य व भाव दोनों ही वेदोका समान उदय पाया जाता है। परन्तु क्वचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिथंच इन दोनो गतियोमे 'विषम या विसदृश भी होते है। वह ऐसे कि द्रव्यबेदसे पुरुष होकर भाष वेदसे पुरुष, स्त्री व नपुसक तीनो प्रकारका हो सकता है। इसी प्रकार द्रव्यसे स्त्री और भावसे स्त्री, पुरुष व नपुसक तथा द्रव्यसे नपुंसक और भावसे पुरुष स्त्री ६ नपुसक । इस प्रकार की विषमता होनेसे तहाँ द्रव्य और भाववेद का कोई नियम नही है । क्योकि, आगममे नवे गुणस्थानके सवेदभाग पर्यन्त द्रव्यसे एक पुरुषवेद और भावसे तीनों वेद है ऐसा कथन किया है।-दे० वेद/७ । (पं. ध /उ./१०६२-१०६५)।
४. भाववेदमें परिवर्तन सम्भव है। ध. १/१,१,१०७/३४६/७ कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदो आजन्मः
आमरणात्तदुदयस्य सत्वात्। = [पर्यायरूप होनेके कारण तीनो बेदोकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है-(दे० वेद/२/४ ) , परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी बेद केवल एक-एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नही रहते है, क्योकि, जन्मसे लेकर मरणतक भी किसी एक वेदका उदय पाया जाता है। ज, ४/१,५,६१/३६६/४ वेदतरसकंतीए अभावादो। -- भोगभूमिमे वेद परिवर्तनका अभाव है।
५. द्रव्य वेदमें परिवर्तन सम्भव नहीं गो जी /जी प्र./२७१/५६१/१८ पुवेदोदयेन निर्माणनामोदययुक्ताङ्गोपागनोकर्मोदयवशेन श्मश्रुक– शिश्नादिलिङ्गाङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंत द्रव्यपुरुषो भवति। भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यत्रो भवति। • भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्त द्रव्यनपसक जीवो भवति। - पुरुषवेदके उदयसे तथा निर्माण नामकर्म के उदयसे युक्त अंगोपारा नाममके उदयके वशसे मछ दाढी व लिग आदि चिह्नो से अंकित शरीर विशिष्ट जीव, भवके प्रथम समयको आदि करके उस भवके अन्तिम समयतक द्रव्य पुरुष होता है । इसी प्रकार भवके प्रथम समयसे लेकर उस भवके अन्तिम समयतक द्रव्य-स्त्री व द्रव्य नपुंसक होता है।
५. गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
१. नरकमें केवल नपुंसक वेद होता है ष ख /९/१.१/ सू. १०५/३४५ णेरइया चदुसु हाणेसु सुद्धा णवु सयवेदा।
१०५ - नारकी जीव चारो ही गुणस्थानो में शुद्ध (केवल ) नसकवेदी होते है-(और भी दे वेद/१/३)। प.ध/3/१०८६ नारकाणा च सर्वेषा वेदकश्चैको नपुंसक । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्र वेदो न वा पुमान् ।१०८६। सम्पूर्ण नारकियोके द्रव्य व भाव दोनो प्रकारसे एक नपंसक ही वेद होता है उनके न सी वेद होता है और न पुरुष वेद ।१०८६॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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