Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 606
________________ वेदान्त ६. माध्य वेदान्त या द्वतवाद इसी में लीन हो जाता है। ४. प्रकृति तीन प्रकार है-अप्राकृत, प्राकृत और काल । तीनो ही नित्य व विभु है। त्रिगुणोसे अतीत अप्राकृत है । भगवान् का शरीर इसीसे बना है । त्रिगुण रूप प्राकृत है। ससारके सभी पदार्थ इसीसे बने है। इन दोनोसे भिन्न काल है। ३. शरीर व इन्द्रिय पृथिवीसे मास व मन, जलसे मूत्र, शोणित व प्राण; तेजसे हड्डी, मज्जा व वाक् उत्पन्न होते है। मन पार्थिव है। प्राण अणु प्राण है तथा अवस्थान्तरको प्राप्त वायु रूप है। यह जीवका उपकरण है। इन्द्रिय ग्यारह है-पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, और मन । स्थूल शरीरकी गरमीका कारण इसके भीतर स्थित सुक्ष्म शरीर है। (विशेष दे० वेदान्त/२ )। ६. माध्व वेदान्त या द्वैतवाद १. सामान्य परिचय ई. श. १२-१३ मे पूर्ण प्रज्ञा माध्व देव द्वारा इस मतका जन्म हुआ। न्याय सुधा व पदार्थ सग्रह इसके मुख्य ग्रन्थ है। अनेक तत्त्व माननेसे भेदवादी है। २. तत्त्व विचार पदार्थ १० है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य व अभाव । ३. द्रव्य विचार १. द्रव्य दो-दो भागोमें विभाजित है--गमन प्राप्य, उपादान कारण, परिणाम व परिणामी दोनो स्वरूप, परिणाम व अभिव्यक्ति। उसके २० भेद है--परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृतआकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्त्व, अह कार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल तथा प्रतिबिम्ब । २, परमात्मा-यह शुद्ध, चित्स्वरूप, सर्वज्ञाता, सर्व द्रष्टा, नित्य, एक, दोष व विकार रहित, सृष्टि, सहार, स्थिति, बन्ध, मोक्ष आदिका क्ता, ज्ञान शरीरी तथा मुक्त पुरुषसे भी परे है। जीवो ब भगवान् के अवतारोमे यह ओत-प्रोत है। मुक्त जीव तो स्वेच्छासे शरीर धारण करके छोड देता है। पर यह ऐसा नहीं करता। इसका शरीर अप्राकृत है। ३ लक्ष्मी-परमात्माकी कृपासे लक्ष्मी, उत्पत्ति, स्थिति व लय आदि सम्पादन करती है। ब्रह्मा आदि लक्ष्मीके पुत्र है। नित्य मुक्त व आप्त काम है। लक्ष्मी परमात्माकी पत्नी समझी जातो है। श्री, भू, दुर्गा, नृणी, हो. महालक्ष्मी, दक्षिणा, सीता, जयती, सत्या, रुक्मिणी, आदि सब लक्ष्मीकी मूर्तियाँ है। अप्राकृत शरीर धारिणी है। ४. जीवब्रह्मा आदि भी ससारी जीव है। यह असख्य है। अज्ञान, दुख, भय आदिसे आवृत है। एक परमाणु प्रदेशमें अनन्त जीव रह सकते है। इसके तीन भेद है-मुक्ति योग्य, तमो योग्य व नित्य ससारी। ब्रह्मा आदि देव, नारदादि ऋषि, विश्वामित्रादि पितृ, चक्रवर्ती व मनुष्योत्तम मुक्ति योग्य ससारी है। तमो योग्य संसारी दो प्रकार है-चतुर्गुणोपासक, एकगुणोपासक है। उपासना द्वारा कोई इस शरीरमे रहते हुए भी मुक्ति पाता है। तमोयोग्य जीव पुन' अपि चार प्रकार है-दैत्य, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य । नित्य ससारी जीव सदैव सुख भोगते हुए नरकादिमे घूमते रहते है। ये अनन्त है। ५. अब्याकृत आकाश-यह नित्य व विभु है, परन्तु भूताकाशसे भिन्न है। वैशेषिकके दिक् पदार्थ बत है। ६. प्रकृति जड, परिणामी, सत्त्वादि गुणत्रयसे अतिरिक्त, अव्यक्त व नाना रूपा है। नवीन सृष्टिका कारण तथा नित्य है। लिग शरीरकी समष्टि रूप है। ७ गुणत्रय-सत्व, रजसू व तनस् ये तीन गुण है। इनकी साम्यावस्थाको प्रलय कहते है । रजो गुणसे सृष्टि, सत्त्व गुणसे स्थिति, तथा तमोगुणसे सहार होता है। ८ महतत्रिगुणोके अंशो के मिश्रण से उत्पन्न होता है । बुद्धि तत्त्वका कारण है। अहंकार-इसका लक्षण साख्य बत् है। यह तीन प्रकारका है-वैकारिक, तेजस ब तामस । १०. बुद्धि- महत्से बुद्धि की उत्पत्ति होती है। यह दो प्रकार है-तत्त्व रूप व ज्ञान रूप। ११. मनस्-यह दो प्रकार है-तत्त्वरूप व तत्त्व भिन्न । प्रथमकी उत्पत्ति वंकारिक अह कारसे होती है। तत्त्व-भिन्न मन इन्द्रिय है। वह दो प्रकार है-नित्य व अनित्य । परमात्मा आदि सब जीवोके पास रहनेवाला नित्य है। बद जोवोका मन अचेतन व मुक्त जीवोका चेतन है। अनित्य मन बाह्य पदार्थ है। तथा सर्व जीवोके पास है। यह पाँच प्रकार है-मन, बुद्धि, अहकार, चित व चेतना। मन सकल्प विकल्पात्मक है। निश्चयात्मिका बुद्धि है। परमे स्वको मति अहंकार है। स्मरणका हेतु चित्त है। कार्य करनेकी शक्ति स्वरूप चेतना है। १२ इन्द्रियतत्त्वभूत व तत्त्वभिन्न दोनो प्रकारकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों, नित्य व अनित्य दो-दो प्रकारकी है। अनित्य इन्द्रियाँ तैजस अह कारकी उपज है। और नित्य इन्द्रिया परमात्मा व लक्ष्मी आदि सब जोबोके स्वरूप भूत है। ये साक्षी कहलाती है। १३. तन्मात्रा-शब्द स्पर्शादि रूप पॉच है। ये दो प्रकार है। तत्त्व रूप व तत्त्व भिन्न । तत्त्व रूपकी उपज तामस अह कारसे है। (सांख्य वत)। १४. भूत-पाँच तन्मात्राओसे उत्पन्न होने वाले आकाश पृथिवी आदि पाँच भूत है । (साख्य वत) । १५. ब्रह्माण्ड-- पचास कोटि योजन विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड २४ उपादानोसे उत्पन्न होता है। विष्णुका बीज है। घडेके दो कपालो बत् इसके दो भाग है। ऊपरला भाग 'यौ' और निचला भाग 'पृथिवी' कहलाता है। इसी मे चौदह भुवनोका अवस्थान है । भगवान्ने महत् आदि तत्त्वोके अशको उदरमें रखकर ब्रह्माण्डमे प्रवेश किया है। तव उसकी नाभिमें कमल उत्पन्न हुआ, जिससे चतुर्मुख ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् देवता. मन, आकाश आदि पाँच भूतोकी क्रमशः उत्पत्ति हुई। १६ अविद्या-पाँच भूतोके पश्चात् सूक्ष्म मायासे भगवान्ने स्थूल अविद्या उत्पन्न की, जिसको उसने चतुमुखमें धारण किया। इसकी पाँच श्रेणियाँ है-मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध तामिस्र, तथा तम, विपर्यय, आग्रह, क्रोध मरण, तथा शार्वर क्रमश इनके नामान्तर है। १७. वर्णतत्त्व-सर्व शब्दोंके मूल भूत वर्ण ५१ है। यह नित्य है तथा समवाय सम्बन्धसे रहित है। १८. अन्धकार-यह भाव रूप द्रव्य है। जड प्रकृतिसे उत्पन्न होता है। इतना धनीभूत हो सकता है कि हथियारोंसे काटा जा सके । १६. बासना-स्वप्नज्ञानके उपादान कार को वासना कहते है। स्वप्न ज्ञान सत्य है। जाग्रतावस्थाके अनुभवोसे वासना उत्पन्न होती है, और अन्त'करणमें टिक जाती है। इस प्रकार अनादिकी वासनाएं संस्कार रूपसे वर्तमान है, जो स्वप्नके विषय बनते है। 'मनोरथ' प्रयत्न सापेक्ष है और 'स्वप्न' अदृष्ट सापेक्ष। यही दोनोमें अन्तर है । २० काल-प्रकृतिसे उत्पन्न, क्षण लब आदि रूप काल अनित्य है, परन्तु इसका प्रवाह नित्य है। २१. प्रतिविम्ब - बिम्बसे पृथक, क्रियावान्, तथा बिम्बके सदृश प्रतिबिम्ब है। परमात्माका प्रतिबिम्ब दैत्यो में है। यह दो प्रकार है-नित्य व अनित्य । सर्व जीवो में परमात्माका प्रतिबिम्ब नित्य है तथा दर्पणमे मुखका प्रतिबिम्ब अनित्य है । छाया, परिवेष, चन्द्रचाप, प्रतिसूर्य, प्रतिध्वनि, स्फटिक्का लौहित्य इत्यादि भी प्रतिबिम्ब कहलाते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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