Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 610
________________ वैक्रियिक २. वैक्रियिक व मिथकाययोग निदेश विउविदो।४३६। थोवाबसेसे जीविदब्बए त्ति जोगजब मज्झरसुवरिमतोमुत्तद्वमच्छिदो ।४४०। चरिमे जोवगुणहाणि हाणं तरे आवलियाए असखेज दिभागमचित्रदो।४४१। चरिम चरिमसमए उकस्सजोग गदो ।४४२॥ तस्स चरिमसमयतब्भवत्यस्स तस्स वे उधियसरीरस्स उकस्सपदेसम्म ।४४३। तवदिरित्तमणुक्कस्स ।४४४। ष. ख १४/4/सूत्र ४९३-४८६/४२४-४२१ जहण्णवे उदिषयसरीरस्स जहण्णय पदेसग कस्स 1४८३। अण्णदरस्स देवणेरझ्यस्स असण्णिपच्छायदस्स १४८४। पढमसमयआहार यस्स पढमसमयतम्भवस्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वे उब्बियसरीररस जाणय पदेसम्म १४८५॥ तब्बदिरिन मजहण्णं ।।८६ - उत्कृष्ट पद की अपेक्षा व क्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है।४३१। जो बाईस सागरकी स्थितिवाला आरण, अच्युत, क्लपवासी अन्यतरदेव हे 1४.२१ उसी देवने प्रथमसमयमें आहारक और तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया है ।४३३। उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है 1४३४सर्वलम् अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा सत्र पर्याप्तियोमे पर्याप्त हुआ है।४३५। उसके बोलने के काल अल्प है।४३६। मनायागके काल चल्प है।४३७। उसके अविच्छेद नहीं है ।४३८। उसने अल्पतर विक्रिया को है।४३६। जीवितव्यके स्तोक शेष रहनेपर वह योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहर्त काल तक रहा ।४४०। अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमे आव लिके असंख्यातवे भागप्रमाण काल तक रहा ।४४१. चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ।४४२। अन्तिम समयमे तद्भवस्थ हुआ, वह जीव वै कियिक शरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाप्रका स्वामी है।४४३। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है ।४४४। जघन्य पदको वेदि यिक शरीरके जघन्य प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है ।४८ असज्ञियोमे आकर उसन्न हुआ जो अन्यतरदेव और नारकी जीव है 11 प्रथम समयमे आहारक और तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला बह जीव वै क्रियिक शरीरके प्रदेशाग्रका स्वामी है।४८५। उससे अन्यतर अजयन्य प्रदेशाग्र है ।४८६। ६. मनुष्य तिर्यचोंके वैक्रियिकशरीर अप्रधान हैं ध १११.१.६८/२६६/६ तिर्यञ्चो मनुष्याश्च बे क्रियिकशरीरा श्रूयन्ते तत्कय घरत इति चेन्न, औदारिकशरीर द्विविध विक्रियात्मवमविक्रियात्मकमिति । तत्र यतिक्रियात्मक तद्वै कियिक मिति तत्रोक्त न तदत्र परिगृह्यते विविधगुण द्धर्व भावात् । अत्र विविधगुणात्मक परिगृह्यते, तच्च देवनारकाणामेव । =प्रश्न-तियं च और मनुष्य भी वैक्रियिक शरीरवाले सुने जाते है, ( इसलिए उनके भी 4 क्रियिक काययोग होना चाहिए)। उत्तर-नही, क्योकि, औदारिक शरीर दो प्रकारका है, विक्रियात्मक और अवि क्रियात्मक । उनमे जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है वह मनुष्य और तियंचोके वे कि. यिक रूपमें कहा गया है । उसका यहॉपर ग्रहण नहीं किया है, क्योकि उसमें नाना गुण और ऋद्धियोका अभाव है। यहॉपर नाना गुण और ऋद्धियुक्त वैक्रियिक शरीरका ही ग्रहण किया है और वह देव और नारकियोके ही है ता है । (ध १/४.१.६६/३२७/१२) ध १/१,१,६६/३२७/१२ णरिश तिरिक्खमणुस्सेम वेउब्वियसरीर, एदेसु वे उब्वियसरीराणामकम्मोदयाभावादो। = तिर्यच व मनुष्यो के वैजियिक शरीर सम्भव नहीं है, क्योवि, इनके क्रियिकशरीर नामकर्मका उदय नही पाया जाता। ७. तिर्यच व मनुष्यों में वैक्रियिक शरीरके विधिनिषेधका । समन्वय रा. वा /२/28/0/१५३,२५ आह चदक -- जीवस्थाने योगभङ्ग सप्तविध काययोगस्वामिप्ररूपणायाम-"औदारिकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्य डमनुष्याणाम, क्रियिक काययोगो वे क्रियिकमिश्र काययोगश्च देवनारकाणाम्" उक्त , इह तिर्थ मनुष्याणाम पीत्युच्यते, तदिदमार्षविरुद्धमिति, अत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डवेषु शरीरभङ्ग वायोगैदारिक्ये क्रियिक्त जसकामणानि चत्वारि शरीराण्युकानि मनुष्याणा पञ्च । एवमप्यार्प योस्तयोविरोध , न विरोध , अभिप्रायकत्वात् । जीवस्थाने सर्वदेवनारकाणा सर्व काल वै क्रियिकदर्शनात तद्योगविधिरित्यभिप्राय , नेव तिर्यगमनुष्याणा लब्धिप्रत्यय वे क्रियिक सर्वेषा सर्वकालमस्ति कादाचित्कस्वात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डवे पु त्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्यातम् । प्रश्नजीव स्थानके योगभग प्रकरणमे तिर्यंच और मनुप्योके औदारिक और आदौरिकमिश्र तथा देव ओर नारक्यिोके ये क्रियिक और ये क्रियिकमिश्र काय योग बताया है (दे वैक्रियिक/२), पर यहाँ तो तिर्यच और मनुष्योके भो वे क्रियिकका विधान किया है। इस तरह परस्पर विराध आता है। उत्तर-व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक के शरीर भ गमे वायुकायिकके आदारिक, वै क्रियिक, तेजस और कार्माण ये चार शरीर तथा मनुष्योके आहारक सहित पाँच शरीर बताये है (दे शरीर/ २/२)। भिन्न-भिन्न अभिप्रायोसे लिखे गये उक्त सन्दर्भोमे परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थानमे जिस प्रकार देव और नारकियोके सर्वदा वे क्रियिक शरीर रहता है, उस तरह तिर्यच और मनुष्यो के नही होता, इसलिए तिर्थच और मनुष्यो के वै क्रियिक शरीरका विधान नहीं किया है। जब कि व्याख्या प्रज्ञप्तिमे उसके सदभावमात्रसे ही उसका विधान कर दिया है। ८. उपपाद व लब्धिप्राप्त क्रियिक शरीरोमें अन्तर रा वा /२/४७/३/१५२/१ उपपादो हि निश्चयेन भवति जन्मनिमित्त सात, लब्धिस्तु कादाचित्को जातस्य स्त उत्तरकाल तपोविशेषाद्य पेक्षत्वादिति, अयमनयोर्विशेष । = उपपाद तो जन्मके निमित्तवश निश्चित रूपमे होता है और लब्धि क्सिीके ही विशेष तप आदि करनेपर कभी होती है। यही इन दोनोमे विशेष है। गा जी /भाषा/५४३/६४८/३ इहा ऐसा अर्थ जानना-जो देवनिकै मूल शरीर तौ अन्यक्षेत्रवि तिष्ठ है अर विहारकर क्रियारूप शरी. अन्य क्षेत्र विषैतिष्ठ है। तहा दोऊनिके बीचि आरमाके प्रदेश सूच्य गुनका असल्यातवा भागमात्र प्रदेश ऊँचे चौडे फेले है अर यह मुरब्यताको अपेक्षा संख्यात योजन ल वे कहे है ( दे वेक्रियिक/३)। बहुरि देव अपनी-अपनी इच्छात हस्ती घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया कर ताको अवगाहना एक जीवको अपेक्षा सख्यात धनागुल प्रमाण है । (गा जी /भाषा५४८/६५७/१८) ९. वैक्रियिक व आहारक शरीरमें कथंचित् प्रतिघातीपना स सि./२/४०/१६३/११ ननु च क्रियिकाहारकयोरपि नास्ति प्रति घात । सर्वत्राप्रतिघाताऽत्र विवक्षित । यथा तेजसकार्मणयोरा लोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतिघात न तथा ये क्रियिकाहारकया =वै क्रियिक और आहारक्का भी प्रतिघात नही होता, फिर यहाँ तैजस और कामण शरीरको हो अप्रतिघात क्यो कहा ( दे शरीर, १५) उत्तर-इस मूत्रमे सर्वत्र प्रतिधातका अभाव विवक्षित है जिस प्रकार तैजस ओर कार्मा शरीरका लोकपर्यन्त सर्वत्र प्रतिधार नहीं होता, वह बात वै क्रियिक ओर आहारक शरीरको नहीं है। २. वैक्रियिक व मिश्रकाययोग निर्देश १. वैक्रियिक व मिश्रकाययोगके लक्षण प म /प्रा1१/६५-६६ विविहगुणइढिजुत्त बेउव्वियमहब विकिरि, चेव । तिस्से भव च णेय बउब्वियकायजोगो सो 18५। अतोमुहूत्त. मज्म बियाण मिस्स च अपरिपुण्णो त्ति। जो तेण सपओगो वैउवियमिस्सकायजोगो सो 1841 -विविध गुण और ऋद्धियोसे युक्त, अथवा विशिष्ट क्रियावाले शरीरको बै क्रियिक कहते है। उसमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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