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कणाद रहस्य । इसके अतिरिक्त भी शिवादित्यकृत सप्त पदार्थी, लोगाक्षिभास्करकृत तर्ककौमुदी, विश्वनाथकृत भाषा परिच्छेद, तर्कसंग्रह, तर्कामृत आदि वैशेषिक दर्शनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनमेसे वैशेषिक सूत्रकी रचना ई. श. १ का अन्त तथा प्रशस्तपाद भाष्यकी रचना ई. श. ५-६ अनुमान की जाती है। [स. म /परि-ग | पृ.४१८) ३. तत्त्व विचार (वैशे. सू अधिकार १-५) (षट दर्शन समुच्चय/६०-६६/६३-६६) (भारतीय दर्शन) १ पदार्थ ७ है-द्रव्य, गुण. कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय व अभाव । २. द्रव्य है-पृथिवी, जल, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिक् , आस्मा तथा मनस्। प्रथम ४ नित्य व अनित्यके भेदसे दो-दो प्रकार है और शेष पाँच अनित्य है। नित्यरूप पृथिवी आदि तो कारण रूप तथा परमाणु है और अनित्य पृथिवी आदि उस परमाणुके कार्य है। इनमें क्रमसे एक, दो, तीन ब चार गुण पाये जाते है। नित्य द्रव्योमें आत्मा, काल,दिक व आरमाकाश तो विभुहैऔर मनस् अभौतिकपरमाणु है। आकाश शब्दका समवायि कारण है। समय व्यवहारका कारण काल, और दिशा-विदिशाका कारण दिक् है। आत्मा व मनस् नैयायिकोकी भांति है। (दे. न्याय/१/५) । ३. कार्यका असमवायि कारण गुण है । वे २४ हैरूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, सयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रव्यरव, स्नेह, शब्द, ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार । प्रथम ४ भौतिक गुण है, शब्द आकाशका गुण है, ज्ञान से सस्कार पर्यन्त आत्माके गुण है और शेष आपेक्षिक धर्म है। धर्म व अधर्म दोनो गुण जीवोके पुण्य पापात्मक भाग्यके वाचक है। इन दोनोको अदृष्ट भी कहते है । ४. कर्मक्रियाको कर्म कहते है। वह पाँच प्रकारको है-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, व गमनागमन । वह कर्म तीन प्रकारका हैसत्प्रत्यय, असत्प्रत्यय और अप्रत्यय । जीवके प्रयत्नसे उत्पन्न कायिक चेष्टा सत्प्रत्यय है, बिना प्रयत्नकी चेष्टा असत्प्रत्यय है और पृथिवी आदि जडपदार्थों में होनेवाली क्रिया अप्रत्यय है । ५. अनेक वस्तुओंमे एकत्वकी बुद्धिका कारण सामान्य है । यह नित्य है तथा दो प्रकार है-पर सामान्य या सत्ता सामान्य, अपर सामान्य या सत्ता विशेष । सर्व व्यापक महा सत्ता पर सामान्य है तथा प्रत्येक वस्तु व्यापक द्रव्यस्व गुणत्व आदि अपर सामान्य है, क्योकि अपनेसे ऊपरऊपरको अपेक्षा इनमें विशेषता है। ६. द्रव्य, गुण, कर्म आदिमे परस्पर विभाग करनेवाला विशेष है । ७. अयुत सिद्ध पदार्थों में आधार आधेय सम्बन्धको समवाय कहते है जैसे-द्रव्य व गुणमे सम्बन्ध, यह एक व नित्य है । ८.अभाव चार प्रकारका है प्रागभाव, प्रध्व साभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव (दे. बह-वह नाम)। १ ये लोक नैगम नयाभासी हैं।-(दे अनेकांत/२/8) ४. ईश्वर, सृष्टि व प्रलय १ यह लोग सृष्टि कर्ता वादी है। शिवके उपासक है ( दे. परमात्मा/ ३१५) । २. आहारके कारण घट आदि कार्य द्रव्योके अवयवोमें क्रिया विशेष उत्पन्न होने से उनका विभाग हो जाता है तथा उनमेसे संयोग गुण निकल जाता है। इस प्रकार वे द्रव्य नष्ट होकर अपनेअपने कारण द्रव्य परमाणुओमें लय हो जाते है। इसे ही प्रलय कहते है। इस अवस्थामें सृष्टि निष्क्रिय होती है। समस्त आत्माएँ अपने अदृष्ट, मनस् और संस्कारोके साथ विद्यमान रहती है। ३. ईश्वरकी इच्छा होनेपर जीवके अदृष्ट तथा परमाणु कार्योन्मुख होते है, जिसके कारण परस्परके संयोगसे द्विअणुक आदि स्थूल पदार्थों की रचना हो जाती है। परमाणु या द्विअणुको के मिलनेसे स्थूल द्रव्य नही होते त्रिअणुकोंके मिलनेसे ही होते है। यही सृष्टिकी रचना है । सृष्टिकी
प्रक्रियामे ये लोग पीलुपाक सिद्धान्त मानते है-(दे आगे नं. ५)। ४ पूर्वोपार्जित कर्मोके अभावसे जीवके शरीर, योनि, कुल बादि होते है। वही संसार है। उस अदृष्टके विषय समाप्त हो जानेपर मृत्यु और अदृष्ट समाप्त हो जानेपर मुक्ति हो जाती है । ५. पीलुपाक व पिठरपाक सिद्धान्त (भारतीय दर्शन) १ कार्य वस्तुएँ सभी छिदवाली ( Porous ) होती है। उनके छिद्रोमे तैजस द्रव्य प्रवेश करके उन्हे पका देता है। वस्तु ज्यो की त्यो बनी रहती है। यह पिठरपाक है। २, कार्य व गुण पहले समवायि कारणमे उत्पन्न होते है। पीछे उन समवायि कारणोके संयोगसे कार्य द्रब्योकी उत्पत्ति होती है, जैसे-घटको आगमें रखनेसे उस घटका नाश हो जाता है फिर, उसके परमाणु पककर लाल र गसे युक्त होते हैं, पोछे इन परमाणुओके योगसे घडा बनता है और उसमे लाल रंग आता है। यह पीलुपाक है। ६. ज्ञान प्रमाण विचार (वैशे. द./अधिकार 6-8), (षट्दर्शन समुच्चय/६७/६६), (भारतीय दर्शन ) १ नैयायिकोबत बुद्धि व उपलब्धिका नाम ही ज्ञान है, ज्ञान दो प्रकार है-विद्या व अविद्या। प्रमाण ज्ञान विद्या है और संशय आदिको अविद्या कहते है। २ प्रमाण २ है-प्रत्यक्ष, अनुमान । नैयायिको वत इन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष है. अनुमानका स्वरूप नैयायिकोबत् है। योगियोको भूत, भविष्यग्राही प्रातिभ ज्ञान आर्ष है। ३. अविद्या-चार प्रकारकी है-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, तथा स्वप्न । सशय, विपर्यय व अनध्यवसायके लिए दे वह वह नाम निद्राके कारण इन्द्रियों मनमे विलीन हो जाती है और मन मनोवह नाडीके द्वारा पुरीतत नाडीमे चला जाता है। तहाँ अदृष्टके सहारे, सस्कारोव वात पित्त आदिके कारण उसे अनेक विषयोका प्रत्यक्ष होता है। उसे स्वप्न कहते है। ७. साधु चर्या (स म/परि-ग./पृ. ४१०) इनके साधु, दण्ड, कमण्डलु, या तुम्बी, कमण्डल, लँगोटी व यज्ञोपवीत रखते है, जटाएं बढाते है तथा शरीरपर भस्म लगाते है। नीरस भोजन या कन्दमूल खाते है। शिवका ध्यान करते है। कोई-कोई स्त्रीके साथ भी रहते है। परन्तु उत्कृष्ट स्थितिमे नग्न व रहित ही रहते है। प्रात.काल दॉत, पैर आदिको साफ करते है। नमस्कार करनेवालोको 'ॐ नम: शिवाय' तथा संन्यासियोको 'नम. शिवाय' कहते है।
2.वैशेषिकों व नैयायिकों में समानता व असमानता स्या मं./परि-ग./पृ ४१०-४११/-१ नैयायिक व वैशेषिक बहुतसी मान्यताओमे एक मत है। उद्योतकर आदिके लगभग सभी प्राचीन न्यायशास्त्रोंमें वैशेषिक सिद्धान्तोका उपयोग किया गया है। २. पीछे वैशेषिक लोग आत्मा अनात्मा व परमाणुका विशेष अध्ययन करने लगे और नैयायिक तर्क आदिका। तम इनमे भेद पड़ गया है। ३. दोनो हो वेदको प्रमाण मानते है। वैशेषिक लोक प्रत्यक्ष व अनुमान दो ही प्रमाण मानते है, पर नैयायिक उपमान व शब्दको भिन्न प्रमाण मानते है। ४ वैशेषिक सूत्रोमे द्रव्य गुण कर्म आदि प्रमेयकी और न्याय सूत्रोमे तर्क, अनुमान आदि प्रमाणोकी चर्चा प्रधान है । ५. न्याय सूत्र में ईश्वर की चर्चा है पर वैशेषिक सूत्रोमें नहीं। ६. वैशेषिक लोग मोक्ष को नि श्रेयस या मोक्ष कहते है। और नैयायिक लोग-अपवर्ग । ७. वैशेषिक लोग पीलुपाक वादी है और नैयायिक लोग पीठरपाक वादी। * वैदिक दर्शनोंका धमकी ओर विकासक्रम -दे. दर्शन।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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