Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 619
________________ व्यंतर ६१२ ४. व्यंतर लोक निर्देश . श्री ही आदि देवियोंका परिवार ति प/४/गा का भावार्थ- हिमवान् आदि ६ कुन्नधर पर्वतोके पद्म आदि ६ ह्रदो में श्री आदि ६ व्यतर देवियाँ सपरिवार रहती है। तहाँ श्री देवी के सामानिक देव ४००० (गा १६७४), त्रायस्त्रिा १०८ (गा १६८६), अभ्यतर पारिषद ३२००० (गा १६७८), मध्यम पारिषद ४०,००० (गा १६७६) बाह्य पारिषद ४८००० (गा १६८०), आत्मरक्ष १६००० (गा. १६७६), सप्त अनीकमें प्रत्येक को सात-सात कक्षा है। प्रथम कक्षामे ४००० तथा द्वितीय आदि उत्तरोत्तर दूने-दूने है। (गा १६८३)। हो देवीका परिवार श्रीके परिवारसे दूना है (गा १७२६)। [धृतिका ह्रीसे भी दूना है। ] कीर्तिका धृतिके समान है। (गा, २३३३) बुद्रिका कोतिसे बाधा अर्थात् होके समान। (गा,२३४५) और लक्ष्मीका श्रीके समान है (गा २३६१)।-(विशेष दे० लोक/३/६ )। ३. व्यंतरोंके भवनों व नगरों आदिकी संख्या ति ५/६/गा. एवविहरूवाणि तीस सहस्साणि भवणाणि ।२०। चोदससहस्समेत्ता भवणा भूदाण रबरबसाण पि। सोलससहस्ससवा सेसाण णथि भवणाणि ।२६। जोयणसदत्तियदीजिदे पदरस्स सखभागम्मि । ज ल द त माण बेतरलोए जिणपुराण । -१ इस प्रकारके रूपवाले ये प्रासाद तीस हजार प्रमाण है ।२० तहाँ (खरभागमें ) भूतोके १४००० प्रमाण और (पंकभागमें ) राक्षसोके १६००० प्रमाण भवन है ।२६। (ह. पु/४/६२), (त्रि. सा /२१०), (ज.प/११/ १३६)। २. जगत्प्रतरके सरख्यातभागमें ३०० योजनके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरलोकमे जिनपुरोका प्रमाण है ।१०२॥ १. भवनों व नगरों आदिका स्वरूप ४. व्यंतर लोक निर्देश १. व्यंतर लोक सामान्य परिचय ति ५/६/५ रज्जुकदी गुणिदबा णवणउदिसहस्स अधियलवखेण । तम्मज्झे तिषियप्पा बेतरदेवाण होंति पुरा राजुके वर्गको १६६००० से गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके मध्यमें तीन प्रकारके पुर होते है ।। त्रि. सा /२६५ चित्तबइरादु जावय मेरुदय तिरिय लोय वित्थार । भोम्मा हवं ति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे ।२६६। - चित्रा और वज्रा पृथिवीर्की मध्यस धिसे लगाकर मेरु पर्वतकी ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोकके विस्तार प्रमाण लम्बे चौडे क्षेत्र में व्यतर देव भवन भवनपुर और आवासोमे वास करते है ।२६६।। का, अ/मू./१४५ 'खरभाय पकभाए भावणदेवाण होति भवणाणि । वितरदेवाण तहा दुण्ह पि य तिरियलोयम्मि १४५६ खरभाग और पकभागमें भवनवासी देवोंके भवन है और व्यंतरोके भी निवास है। तथा इन दोनोके तिर्यकलोकमे भी निवास स्थान है। ।१४५। (पकभाग-८४००० यो., खरभाग-१६००० यो, मेरुकी पृथिवीपर ऊँचाई-६६००० यो । तीनौका योग =१६६००० यो.। तिर्यक् लोकका विस्तार १ राजु२। कुल घनक्षेत्र-१ राजु२४१६. १००० यो.]। ति. ५/६/गा का भावार्थ । १. भवनों के बहुमध्य भागमे चार वन और तोरण द्वारो सहित कूट होते है ।११। जिनके ऊपर जिनमन्दिर स्थित है ।१२। इन कूटोके चारो और सात आठ मजिले प्रासाद होते है। ११८। इन प्रासादोका सम्पूर्ण वर्णन भवनवासी देवोके भवनोके समान है ।२०। ( विशेष दे० भवन/४/५); त्रि सा./२६६)। २. आठो व्यतरदेवोके नगर क्रमसे अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मन शिलक, वज्र, रजत, हिगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपोमे स्थित है।६० द्वीपको पूर्वादि दिशाओमे पाँचपाँच नगर होते हैं. जो उन देवोंके नामोसे अकित है। जैसे किन्नरप्रभ, किन्नरक्रान्त, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य ।६१। जम्बूद्वीपके समान इन द्वीपो में दक्षिण इन्द्र दक्षिण भागमें और उत्तर इन्द्र उत्तर भागमें निवास करते है।६२। सम चौकोण रूपसे स्थित उन पुरोके सुवर्णमय कोट विजय देवके नगरके कोटके (दे० अगला सन्दर्भ) चतुर्थ भागप्रमाण है ।६३। उन नगरोके बाहर पूर्वादि चारो दिशाओमें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्रवृक्षोके वन है।६४। वे वन १०००,०० योजन लम्बे और ५०,००० योजन चौड़े है।६। उन नगरों में दिव्य प्रासाद है।६६ [प्रासादोका वर्णन ऊपर भवन व भवनपुरके वर्णनमे किया है।] (त्रि, सा./२८३-२८६)। ह पु.// श्लोकका भावार्थ-विजयदेवका उपरोक्त नगर १२ योजन चौडा है । चारो ओर चार तोरण द्वार है। एक कोटसे वेष्टित है। ३६७-३६६। इस कोटकी प्रत्येक दिशामे २५-२५ गोपुर है।४००। जिनको १७-१७ मजिल है।४०२। उनके मध्य देवोकी उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारो ओर एक वेदिका है।४०३-४०४। नगरके मध्य गोपुरके समान एक विशाल भवन है।४०५। उसकी चारो दिशाओमें अन्य भी अनेक भवन है। ४०६। (इस पहले मण्डल की भाँति इसके चारो तरफ एकके पश्चात एक अन्य भी पाँच मण्डल है)। सभी में प्रथम मडलकी भॉति ही भवनोकी रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवे मण्डलोके भवनोका विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मण्डलोके भवनोका विस्तार क्रमश. पहले, तीसरे व पाँचवे के समान है।४०७-४०३। बीचके भवन में विजयदेवका सिंहासन है ।४११। जिसकी दिशाओं और विदिशाओमे उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन है ।४१२-४१५। भवनके उत्तरमे सुधर्मा सभा है ।४१७। उस सभाके उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तरमें उपपार्श्व सभा है। इन दोनोका विस्तार सुधर्मा सभाके समान है। 1४१८-४१४। विजयदेवके नगरमे सब मिलकर ५४६७ भवम है ।४२०॥ ति. प./४/२४५०-२४५२ का भावार्थ-लवण समुद्रकी अभ्यंतर वेदीके ऊपर तथा उसके बहुमध्य भागमे ७०० योजन ऊपर जाकर आकाशमें क्रमसे ४२००० व २८००० नगरियाँ है। २. निवासस्थानोंके भेद व लक्षण ति. ५/६/६-७ भवणं भवणपुराणि आवासा इय भवेति तिवियप्पा । ६। रयणप्पहपुढवीए भवणाणि दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणि दहगिरि पहूदीणं उपरि आवासा 1७1 -(व्यतरोके ) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकारके निवास कहे गये है।६। इनमेसे रत्नप्रभा पृथिवीमे अर्थात खर व पक भागमें भवन, द्वीप व समुद्रोके ऊपर भवनपुर तथा द्रह एव पर्वतादिके ऊपर आवास हाते है। (त्रि सा/ २६४.२६५)। म. पु./३१/११३ वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान कोटरोटजान् । अक्षपाटात् क्षपाटाश्च विद्धि म साई सर्वगान् ।११३। - हे सार्व (भरतेश)' बटके वृक्षोंपर, छोटे छोटे गड्ढोमे, पहाडोके शिखरोपर, वृक्षोकी खोलो और पत्तोकी झोपडियो में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करनेवाले हम लोग्नेको आप सब जगह जानेवाले समझिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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